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प्रमाप्रमेयम् .
उन्हों ने भी संव्यवहार प्रत्यक्ष कहा है ? | बाद के आचार्यों ने मुख्य तथा संव्यवहार प्रत्यक्ष का यह वर्गीकरण मान्य किया है किन्तु स्मृति आदि को उन्हों ने अनिन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं माना है २ । भावसेन ने प्रत्यक्ष प्रमाण के जो चार प्रकार बतलाये हैं उन में योगिप्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यय तथा केवल-- ज्ञान का समावेश है अर्थात प्राचीन आगमिक परम्परा का प्रत्यक्ष और अकलंकदेव आदि की परम्परा का मुख्य प्रत्यक्ष ही यहां योगिप्रत्यक्ष कहा गया है३ । इन्द्रियप्रत्यक्ष भी इन पूर्वाचार्यों द्वारा वर्णित संव्यवहारप्रत्यक्ष का एक भाग है । मानसप्रत्यक्ष का संव्यवहारप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव किया जा सकता है - उमास्वाति ने मतिज्ञान को इन्द्रिय-अनिन्द्रियनिमित्तक माना है, जिनभद्र ने संव्यवहारप्रत्यक्ष को इन्द्रियमनोभव कहा है तथा अकलंकदेव ने तो अनिन्द्रियप्रत्यक्ष का स्पष्ट ही वर्णन किया है। किन्तु भावसेन ने मानसप्रत्यक्ष की जो विषयमर्यादा बतलाई है ( आत्मा के सुख, दुःख, हर्ष, इच्छा.
आदि का ज्ञान ही मानसप्रत्यक्ष का विषय है ) वह अकलंकवर्णित अनिन्द्रियप्रत्यक्ष के अनुकूल नही है। भावसेन के स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का भी स्वतन्त्र प्रकार के रूप में वर्णन अन्य जैन ग्रन्थों में नही पाया जाता, फिर. भी ज्ञान अपने आप को जानता है इस विषय में जैन आचार्य एकमत हैं,
१. लघीयस्त्रय श्लो. ४ । तत्र सांव्यवहारिकमिन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्षम् ।।
मुख्यमतीन्द्रियज्ञानम् । २. लघीयस्त्रय श्लो. १०-११ पर प्रभाचन्द्र की व्याख्या इस दृष्टि से
देखनेयोग्य है।
३. यहां द्रष्टव्य है कि भावसेन ने योगिप्रत्यक्ष में केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान को समाविष्ट किया है, इन में पहले दो ज्ञान तो सिर्फ योगियों को ( महाव्रतधारी मुनियों को) होते हैं किन्तु अवधिज्ञान गृहस्थों को भी होता है । जिनेश्वरमूरि ने प्रमालक्ष्म ( श्लो. ३ ) में इसी प्रकार योगिविज्ञान शब्द का प्रयोग किया है, यथा- प्रत्यक्षं योगिविज्ञानमवधिमनसो गम: । केवलं च त्रिधा प्रोक्तं योगिनां त्रिविधत्वतः ।।
४. भावसेन ने विश्वतत्त्वप्रकाश (परि. ३८ ) में इस विषय की चर्चा विस्तार से की है।
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