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प्रमाप्रमेयम्
दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहते हैं । सिद्धसेन ने जो परोक्ष नही है उसे प्रत्यक्ष कहा है- प्रत्यक्ष की विधिरूप व्याख्या नहीं की है। आगमों की दूसरी परम्परा के अनुसार जब इन्द्रियों और मन से प्राप्त ज्ञान को व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना गया तब प्रत्यक्ष के लक्षण में परिवर्तन जरूरी हुआ। अकलंकदेव ने विशद अथवा स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा तथा उसे साकार यह विशेषण भी दिया३ । विशद का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया कि जिस ज्ञान के लिए कोई दूसरा ज्ञान आधारभूत नही होता वह विशद अर्थात प्रत्यक्ष है?-स्मृति
आदि ज्ञानों के लिए पूर्ववर्ती प्रत्यक्ष ज्ञान आधारभूत होता है इस लिए वे परोक्ष हैं । भावसेन का प्रत्यक्ष लक्षण भी इस व्याख्या के अनुरूप है।
वायसूत्र में प्रत्यक्ष उसे कहा गया है जो इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न, शब्द योजना से पूर्ववर्ती, यथार्थ तथा निश्चयात्मक ज्ञान होता है। किन्तु इस में योगिप्रत्यक्ष तथा मान सप्रत्यक्ष का समावेश नहीं हो सकता । इस लिए वात्स्यायन ने इस सूत्र के इन्द्रिय शब्द में मन का अन्तर्भाव करने का प्रयत्न किया है । भासर्वज्ञ ने सम्पक् अपरोक्ष अनुभव के साधन को प्रत्यक्ष कहा है ।
१. तत्त्वार्थस्त्र अ. १ सू. ९-१२। मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि
ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । २. न्यायावतार श्लो. ४ । अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्ष
मितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ।। ३. न्यायविनिश्चय श्लो. ३ । प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । ४. परीक्षामुख २-४ । प्रतीत्यन्तराच्यवधानेन विशेषवत्तपा वा प्रतिभासनं
वैशद्यम् । ५. न्यायसूत्र १-१-४। इन्द्रियार्थसन्नि काँत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि
व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् । ६. न्यायभाष्य १-१-४ । आत्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यक्षलक्षणं वक्तव्यम्
...मनसश्चेन्द्रियभावात् तन्न वाच्यं लक्षणान्तरमिति । ७. न्यायसार पृ. ७ सम्यगपरोक्षानुभवसाधनं प्रत्यक्षम् ।
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