Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 147
________________ १२६ प्रमाप्रमेयम् तथा अपूर्व अर्थ का निश्चय करनेवाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। । हेमचन्द्र ने अपूर्वार्थग्रहण विशेषण को अनावश्यक समझ कर वस्तु का यथार्थ निर्ण: यही प्रमाण का लक्षण माना है। आचार्य भावसेन का पदार्थयाथात्म्य. निश्चय यह लक्षण भी इसीका अनुसरण करता है। नैयायिक विद्वानों ने प्रमाणशब्द की व्युत्पक्ति को ही लक्षण का रूप देने की पद्धति अपनाई है। इस में प्रमा का साधन प्रमाण होता है अतः ज्ञान के साथ साथ इन्द्रिय. और पदार्थों के सम्बन्ध को भी प्रमाण कहा जाता है | प्रमाण शब्द के रुद्ध अर्थ में विश्वसनीयता का अंश महत्त्वपूर्ण है - विश्वासयोग्य ज्ञान को ही प्रमाणभूत समझा जाता है । बौद्ध और जैन आचार्यों के लक्षण इस अर्थ के अनुकूल हैं । इस पक्ष में प्रमाणशब्द का भावरूप अर्थ प्रमुख है। नैयायिक विद्वान प्रमाण शब्द के साधन रूप अर्थ पर जोर देते हैं। प्रमाणों के प्रकार (परि० २) । भावसेन ने प्रमाण के दो प्रकार बतलाये हैं - भावप्रमाण तथा करण प्रमाण; एवं करण प्रमाण के तीन भेदों का (द्रव्य, क्षेत्र, काल ) ग्रन्थ के. अन्तिम भाग (परि. १२५-२७) में वर्णन किया है । इन चार भेदों का एकत्रित उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र में मिलता है किन्तु वहां भाव तथा करण यह वर्गीकरण नही पाया जाता। १. अष्टसहस्त्री पृ. १७५ । प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमनधिगतार्थाधिगम लक्षणत्वात् । परीक्षामुख १-१ स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्। २. प्रमाणमीमांसा १.१.२। सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्। ३. न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका पृ. २११ प्रमासाधनं हि प्रमाणम् । न्यायसार पृ. २। सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम् । तर्कभाषा पृ. १। प्रमाकरणं प्रमाणम् । न्यायमंजरी पृ. १२। अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् । इस परम्परा में उल्लेखनीय अपवाद उदयन का है, उन्होंने यथार्थ अनुभव को प्रमाण कहा है (यथार्थानुभवो मानम्-न्यायकुसुमांबलि प्र.४ श्लो.१)। ४. सूत्र १३१ से किं तं पमाणे । पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा दम्वपमाणे खेत्तपमाणे कालपमाणे भावपमाणे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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