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तुलना और समीक्षा
प्रमाण का लक्षण (परि० २ )
तर्कशास्त्र के प्रारम्भिक युग में प्रमाण शब्द का उपयोग किसी लक्षण के बिना ही किया गया है । न्यायसूत्र' तथा जैन आगमों के उल्लेख इसी प्रकार के हैं । वात्स्यायन रे, उमास्वाति तथा पूज्यपाद ने प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति बतलाई है | समन्तभद्र ने स्व तथा पर को जाननेवाली बुद्धि को प्रमाण कहा है तथा एकसाथ सब को जाननेवाला सर्वज्ञ का ज्ञान और क्रमशः होनेवाला स्याद्वाद - संस्कृत ज्ञान ये उस के प्रकार बतलाये हैं। सिद्धसेन ने प्रमाण के लक्षण में स्व-पर के ज्ञान में बाधा न होना इस विशेषता का समावेश किया है। बौद्ध आचार्यों के प्रमाण लक्षण में अविसंवादि ज्ञान : 1. इस शब्दप्रयोग द्वारा इसी बाधा न होने की विशेषता को स्वीकार किया गया है । मीमांसक आचार्यों ने उस ज्ञान को प्रमाण माना हैं जो किसी नये (अथवा अज्ञात अगृहीत = अपूर्व) पदार्थ को जानता हो । अकलंक विद्यानन्द तथा माणिक्यनन्दि ने उपर्युक्त लक्षणों का समन्वय करते हुए स्व
१. न्यायसूत्र १-१-१ तथा १-१-३ ।
२. अनुयोगद्वारसूत्र (सू. १३१) इत्यादि ।
३. न्यायभाष्य १-१-३ । प्रमीयते अनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः । ४. तत्त्वार्थभाष्य १-१२ | प्रमीयन्ते अर्थाः तैः इति प्रमाणानि ।
५. सर्वार्थसिद्धि १-१२ | प्रमिणोति प्रमीयते अनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् । ६. स्वयम्भू स्तोत्र ६३ | स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।
७, आप्तमीमांसा १०१ | तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनय संस्कृतम् ॥
२८. न्यायावतार १ । प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।
९. प्रमाणवार्तिक २-१ प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् |
१०. मीमांसाश्लोक वार्तिक में कुमारिलः तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसंमतम् ॥
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