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तुलना और समीक्षा
१२७.
प्रत्यक्ष से भिन्न सभी प्रमाणों का परोक्ष इस संज्ञा में अन्तर्भाव करना यह जैन प्रमाणशास्त्र की विशेषता है । प्रायः सभी जैन आचार्यों ने इस का । समर्थन किया है । अन्य दर्शनों में यह संज्ञा नहीं पाई जाती।
___ अन्य दर्शनों में प्रमाणों के प्रकारों की जो मान्यताएं हैं उन का संग्रह निम्नलिखित श्लोक में मिलता है....
चार्वाकोऽध्यक्षमेकं सुगतकणभुजौ सानुमानं सशाब्दं तद्वैतं पारमर्षः सहितमुपमया तत्त्रयं चाक्षपादः । अर्थापत्त्या प्रभाकृद् वदति स निखिलं मन्यते भट्ट एतत्
साभावं द्वे प्रमाणे जिनपतिसमये स्पष्टतोऽस्पष्टतश्च ।। अर्थात - चार्वाक एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण मानते हैं, बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं, सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण मानते हैं, नैयायिक इन तीनों में उपमान प्रमाण और जोडते हैं, प्राभाकर मीमांसक इन चारों के साथ अर्थापत्ति पांचवां प्रमाण मानते हैं और भाट्ट मीमांसक इन पांच में अभाव यह छठा प्रमाण जोडते हैं, जैन मत में सब प्रमाण स्पष्ट (प्रत्यक्ष ) और अस्पष्ट (परोक्ष) इन दो भेदों में समाविष्ट हो जाते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण ( परि० ३)
प्राचीन आगमों के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण वह है जिस में केवल (इन्द्रियों की तथा मन की सहायता के बिना ही) आत्मा को पदार्थों का ज्ञान होता है । इस लिए अवधि, मनःपर्यय तथा केवल इन तीन ज्ञानों को ही वे प्रत्यक्ष कहते हैं तथा इन्द्रियों और मन से होनेवाले मति और श्रुत इन
१. नन्दीसूत्र (स. २) तं समासओ दुविहं पण्यत्तं तं जहा पच्चक्खं च
परोक्खं च ॥ तत्त्वार्थस्त्र अ. १ स. ११, १२ । आद्ये परोक्षम् ।
प्रत्यक्षमन्यत् । इत्यादि । २. यह श्लोक न्यायावतार टिप्पन (पृ. ९-१०) में उद्धृत है । ३. प्रवचनसार गा. ५८५ जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख नि भणिदमहेसु !
जदि केवलेण णादं वदि हि जीबेण पच्चक्खं ।।
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