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प्रमाप्रमेयम्
[१.११३
रूपादिमन्ति अवयवयात् तन्त्वादिवत् । वादोऽप्यवयविद्रव्यम् अवयवैः उपपन्नत्वात् पटादिवदिति । तस्मात् तेषाम् अवयवरूपता नाङ्गीकर्तव्या । तथा च न वादः पञ्चावयवोपपन्नः स्यात् ॥
[ ११३. वादानुमानयोर्भेदः ]
किं च । प्रतिज्ञादिभिर्वाक्यैरनुमानमेवोपपद्यते, न वादः । अथ अनुमानमेत्र वाद इति चेन्न । अनुमानप्रमाणस्य वादव्यपदेशाभावात् । ननु परार्थानुमानस्यैव वादव्यपदेश इति चेन्न । ग्रन्थस्थानुमानानां परार्थानुमानत्वेऽपि वादव्यपदेशाभावात् । अथ आत्मविभुत्ववादः शब्दनित्यत्ववादः इति ग्रन्थस्थानुमानानां वादव्यपदेशोऽस्तीति चेन्न । वादिप्रति
आदि के समान वह भी अवयवों से निर्मित नहीं है । प्रतिज्ञा आदि वाक्यों को अवयव मानें तो वे रूप आदि से युक्त सिद्ध होंगे तथा उन से निर्मित (वाद ) को अवयवी मानना होगा। जैसे कि - प्रतिज्ञा आदि के वाक्य अवयव हैं अतः तन्तु आदि के समान वे भी रूप आदि से युक्त होंगे । वाद अवयवों से निर्मित है अतः वस्त्र आदि के समान वह भी अवयवी द्रव्य सिद्ध होगा | अतः उन प्रतिज्ञा आदि वाक्यों को अवयव नहीं मानना चाहिए । अतः वाद पांच अवयवों से निष्पन्न नहीं होता ।
वाद और अनुमान में भेद
दूसरी बात यह है कि प्रतिज्ञा आदि वाक्यों से अनुमान प्रस्तुत किया जाता है - वाद नही । अनुमान ही वाद है यह कहना ठीक नही क्यों कि अनुमान प्रमाण को बाद यह नाम नहीं दिया जाता । परार्थ अनुमान को ही चाद यह नाम दिया जाता है यह कहना भी ठीक नही क्यों कि ग्रन्थों में लिखे हुए अनुमान परार्थ अनुमान होते हुए भी उन्हें वाद नही कहा जाता । ग्रन्थों में लिखित अनुमानों को भी आत्मविभुत्ववाद, शब्दानित्यत्ववाद इस प्रकार वाद यह नाम दिया जाता है यह कहना भी ठीक नही क्यों कि ( न्यायदर्शन के लक्षणानुसार ) वादी और प्रतिवादी पक्ष और प्रतिपक्ष का • स्वीकार कर के जो विचार करते हैं उसे ही वाद कहा जाता है । दूसरी बात यह है कि अनुमान अवयवों से बनता है इस कथन में भी पहले कहा
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