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वितण्ड का लक्षण
१०९.
कथा स्यात् । न तावत् जल्पवितण्डे तल्लक्षणाभावात्। वाद एवेति वक्तव्यम्। अथ वादे दूषणाभासोद्भावना नोपयोयुजतीति चेन्न । सत्साधनोपन्यासे सदूषणोद्भावनस्यासंभवात् । न च व्याप्तिपक्षधर्म. वत्सत्साधनस्य सद्दषणं संभवति। अन्यथा एकस्यापि सत्साधनस्यासंभवात् न कस्यापि स्वपक्षसिद्धिः स्यात् । सदृषणस्यापि सत्साधनपूर्वकत्वात् तदभावे तस्याप्यभावः स्यादिति सर्व विप्लवते। तस्मादेकविषयसाधनदृषणयोः एकेनाभासेन भवितव्यम्। तत एव वादेऽपि साधनदूषणाभासप्रयोगोद्भावनं प्रतिपक्षस्थापनाभावश्च संभाव्यते
है। इस प्रसंग में बाद में स्थापना के हेतु का निराकरण तो नहीं हुआ है, सिर्फ प्रतिवादी द्वारा बताये गये झूठे दृषण का ही निराकरण किया है। उस के बाद कुछ न सूझने से प्रतिवादी चुप हुआ है। अतः इस प्रसंग को कौन सी कथा कहेंगे ? जल्प या वितण्डा नही कह सकते क्यों कि उन के लक्षण इस में नही हैं । अतः इसे वाद ही कहना होगा। बाद में झूठे दृषण नही बताये जाते (अतः यह प्रसंग वाद नहीं है) यह कथन भी उचित नहीं है। ( वस्तुतः) उचित हेतु का यदि प्रयोग किया गया है तो उस में उचित दृषण नही बताया जा सकता ( यदि उचित हेतु में भी कोई दूषण बताया जाये तो वह झूटा दूषण ही होगा)। जो उचित हेतु व्याप्ति से युक्त है तथा पक्ष का धर्म है उस में वास्तविक क्षण नहीं हो सकता। अन्यथा ( यदि उचित हेतु में भी दूपण वास्तविक होने लगें तो) एक भी हेतु उचित नही होगा तथा किसी का भी पक्ष सिद्ध नही हो सकेगा। उचित दूषण तभी होते हैं जब उचित हेतु हों; यदि उचित हेतु ही नही है तो उचित दषण भी नही होंगे, इस प्रकार सर्वत्र गडबडी हो जायगी | अतः एक ही विषय में जो हेतु और दूपण प्रस्तुत किये जाते हैं उन में से एक अवश्य ही झूठा होता है ( यदि हेतु उचित हो तो दूषण झूठा होगा, तथा दूषण सही हो तो हेतु अयोग्य होगा)। अतः वाद में भी साधन तथा दूषण के आभास का प्रयोग एवं बतलाना तथा प्रतिपक्ष की स्थापना का अभाव हा सकता है । अतः जल्प और वितण्डा के लक्षण अतिव्यापक हैं ( उन की कुछ बातें बाद में भी पाई जाती हैं )। यही बात अनुमान-प्रयोग के रूप में बतलाते .
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