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११० प्रमाप्रमेयम्
[१.११८* इत्यतिव्यापकं जल्पवितण्डयोर्लक्षणम् । प्रयोगश्च वादः छलादिप्रयोगवान्
निग्रहस्थानवत्त्वात् परिसमाप्तिमद्विचारत्वात् पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात् - जल्पवदिति । तदेतत् निरूपणमयुक्तं परस्य ।। [ ११८. जल्पवितण्डयोः तत्वाध्यवसायसंरक्षकत्वाभावः ]
___ यच्चोक्तं-तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्ष. -णार्थ कण्टकशाखावरणवत् इति तदसंगतम्। तयोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षण
सामायोगात् । तथाहि । जल्पवितण्डे न तत्वाध्यवसायसंरक्षगसमर्थे - असत्साधनदूषणवत्वात् निखिलबाधकनिराकरणासमर्थत्वाच्च अबलाकलहवत् । न चासत्साधनदूषणत्वमसिद्धं छलजातिनिग्रहस्थानसाधनो. पालम्भो जल्पः स एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा इत्यभिधानात् ।
हैं- वाद में छल इत्यादि का प्रयोग होता है क्यों कि वह भी जला के समान ही निग्रहस्थानों से युक्त है, विचारविमर्श की समाप्ति तक चलता है तथा पक्ष और प्रतिपक्ष को स्वीकार कर किया जाता है। अतः प्रतिपक्षी (नैयायिकों) का यह ( वाद, जल्प और वितण्डा के वर्णन का) कथन योग्य नही है। . जल्प और वितण्डा तत्त्व के रक्षक नही हैं
(न्यायदर्शन का) यह कथन भी उचित नहीं है कि जल्प और :: वितण्डा तत्त्व के निश्चय के रक्षण के लिए होते हैं, उसी प्रकार जैसे बीज से
निकले हुए छोटे अंकुर की रक्षा के लिए काँटोभरी टहनियों का बाडा .. लगाया जाता है । जल्प और वितण्डा में तत्त्व के निश्चय की रक्षा का सामर्थ्य नहीं हो सकता। जल्प और वितण्डा में साधन और दूषण असत् होते हैं तथा उन में बाधक आक्षेपों को पूरी तरह दूर करने का सामर्थ्य भी नही होता अतः स्त्रियों के कलह के समान जल्प और वितण्डा भी तत्त्व के निश्चय की रक्षा में समर्थ नहीं हो सकते । जल्प और वितण्डा में साधन और दूषण असत् होते हैं यह हमारा कथन असिद्ध नहीं है क्यों कि न्यायदर्शन में ही कहा है कि जिस में छल, जाति तथा निग्रहस्थानों द्वारा साधन और दूषण
उपस्थित किये जाते हैं वह जल्प कहलाता है तथा उसी में यदि प्रतिपक्ष की . स्थापना न की जाये तो उसे वितण्डा कहते हैं । हमारे उपर्युक्त कथन का
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