Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 129
________________ १०८ प्रमाप्रमेयम् [१.११७[११७. वितण्डालक्षणविचारः] तदसंभवे स एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा इत्यप्यसांप्रतम् वादे जल्पे च पक्षप्रतिपक्षयोः मध्ये अन्यतरस्य निराकरणे अपरस्य साधनप्रयोगमन्तरेण सुप्रतिष्टितत्वात् अर्थिप्रत्यर्थिनोः एकस्य तप्तायःपिण्डग्रहणादिना दौस्थ्ये अपरस्य तद्ग्रहणमन्तरेण सौस्थ्यसंभववत् । वादिना सत्साधनोपन्यासे प्रतिवादिनः सवणादर्शनेन तूष्णींभावेन तेन दूषणाभासोद्भावने वादिना तत्परिहारे च वादे जल्पेऽपि प्रतिपक्षस्थापनासंभवाच्च । ननु सोऽपि वितण्डा भविष्यतीति चेन्न। यत्र प्रतिवादिना स्थापनाहेतुं निराकृत्य तूष्णीमास्ते सा वितण्डा इत्यङ्गीकारात् । अत्र तु वादे स्थापनाहेतुनिराकरणाभावेन प्रतिवाद्युद्भावितदूषणाभास. स्यैव निराकृतत्वात्। तावताप्रतिभया प्रतिवादिनः तूष्णीभावात् केयं वितण्डा का लक्षण जल्प के लक्षण में उपर्युक्त असंगति होने से 'वही जल्प प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित होने पर वितण्डा कहलाता है' यह कथन भी अनुचित सिद्ध होता है | वाद में और जल्प में भी पक्ष और प्रतिपक्ष में किसी एक का निराकरण करने से दूसरा पक्ष किसी समर्थक अनुमान-प्रयोग के बिना भी विजयी सिद्ध होता है; (जैसे न्यायालय में ) वादी और प्रतिवादी इन दोनों में से तपे हुए लोहे के गोले को पकडने जैसी परीक्षा से एक पक्ष के गलत सिद्ध होने पर दूसरा पक्ष वैसी परीक्षा के बिना भी सही सिद्ध होता है (तात्पर्य -- वाद या जल्प में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों का समान रूप से समर्थन होना ही चाहिए ऐसा नहीं है, एक पक्ष के पराजय से दूसरे का विजय स्वतःसिद्ध हो जाता है )। वादी जब उचित हेतु का प्रयोग करता है और प्रतिवादी उस में उचित दोष नही देख पाता तब चुप रहता है (तथा यदि) प्रतिवादी झूठमूठ दोष बतलाता है तो वादी उस का उत्तर देता है (तब फिर प्रतिवादी चुप हो जाता है) इस प्रकार वाद और जल्प में भी प्रतिपक्ष की स्थापना संभव नही है । ऐसे प्रसंग को भी वितण्डा कहेंगे यह कहना भी संभव नही क्यों कि जहां प्रतिवादी स्थापना के हेतु का निराकरण कर के ही चुप हो जाता है वह वितण्डा है ऐसा (नैयायिकों का) कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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