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१०२
प्रमाप्रमेयम्
[१.१११
ननु प्रमाणात् साधनमुपालम्भश्च तर्कादुपालम्भ एवेति चेन्न । प्रमाण-- तर्कसाधनोपालम्भ इत्यत्र तथाविधविभागनियामकत्वाभावात् । तदयुक्तं. विशेषणम् ॥ [ १११. वादस्य सिद्धान्ताविरुद्धत्वम् ]
सिद्धान्ताविरुद्ध इत्यत्रापि वादस्य विचारत्वेन वादिप्रतिवादिनो: समानत्वात् कस्य सिद्धान्ताविरुद्धः स्यात् । न तावद वादिसिद्धान्ता~ विरुद्धः, प्रतिवादिसिद्धान्तोपन्यासस्य वादिसिद्धान्तविरुद्धत्वात् । न प्रतिवादिसिद्धान्ताविरुद्धोऽपि, वायुपन्यासस्य प्रतिवादिसिद्धान्तविरुद्धत्वात् ।। नाप्युभयसिद्धान्ताविरुद्धः । वादिप्रतिवादिनोः परस्परविरुद्धार्थीपन्यासदर्शनात् । ततो न कस्यापि सिद्धान्ताविरुद्धः स्यात् । तस्मादेतद् विशेष-- णमप्ययुक्तम् ॥ है । प्रमाण स ( स्वपक्ष का) साधन तथा ( प्रतिपक्ष का) दृषण दोनों होते हैं और तर्क से केवल ( प्रतिपक्ष का) दृषण होता है यह कहना भी ठीक नही क्यों कि प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ इस शब्द में इस प्रकार का विभाजन करने का कोई नियमित कारण नहीं है । अतः (वाद के लक्षण में) यह विशेषण उचित नहीं है। क्या वाद सिद्धान्त से अविरोधी होता है ?
(उपर्युक्त लक्षण में वाद को) सिद्धान्त से अविरोधी कहा है यहां भी (विचारणीय है कि ) वाद में विचारविमर्श होता है अतः वह वादी और प्रतिवादी दोनों के लिए समान है किर उसे किस के सिद्धान्त से अविरोधी कहा जाय ? वह वादी के सिद्धान्त से अविरोधी नहीं हो सकता क्यों कि प्रतिवादी जब अपने सिद्धान्त का वर्णन करता है तो वह वादी के सिद्धान्त के विरुद्ध होता ही है । इसी तरह वाद प्रतिवादी के सिद्धान्त से अविरोधी भी नहीं हो सकता क्यों कि बादी का वर्णन प्रतिवादी के सिद्धान्त के विरुद्ध होता ही है । वाद ( वादी और प्रतिवादी इन ) दोनों के सिद्धान्तों से अविरोधी होता है यह कहना भी सम्भव नहीं क्यों कि वे वादी और प्रतिवादी परस्पर विरुद्ध अर्थ का वर्णन करते देखे जाते हैं। अतः वाद किसी के भी सिद्धान्त से अविरोधी नहीं होता । अतः यह विशेषण भी योग्य नहीं है ।
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