Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

View full book text
Previous | Next

Page 124
________________ -१.११२] [ ११२. वादस्य पञ्चावयवत्वम् ] पञ्चावयवोपपन्न इत्यत्र पञ्चभिरवयवैः उपपन्नो निष्पन्न इति वक्तव्यम् । न च तेषां मते पृथिव्यप्तेजोवायुपरमाणुयणुकादिव्यतिरेकेण अन्ये अवयवाः सन्ति, न च वादस्तैरुपपन्नः । तस्य पार्थिवाद्यवयवित्वाभावात् विप्रतिपन्नार्थविचाररूपत्वाच्च व्यतिरेके पटवत्। अथ प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः तैरुपपन्नो वाद इति चेन्न । प्रतिज्ञादीनां वाक्यत्वेन शब्दरूपत्वात्, शब्दस्य च तन्मते आकाशगुणत्वेन अवयवरूपताभावात् । तथा हि । न प्रतिज्ञादिवाक्यानि अवयवाः शब्दत्वात् वीणावाद - नवत्, स्पर्शादिरहितत्वात् गुणत्वात् अमूर्तत्वात् रूपादिवत् । न वादोऽप्यवयवैः उपपन्नः अनवयवित्वात् अद्रव्यत्वात् अमूर्तत्त्वात् स्पर्शादिरहित स्वात् रूपादिचत् । किं च । प्रतिज्ञादिवाक्यानामवयवरूपत्वाङ्गीकारे तेषां रूपादिमत्त्वं तैरुपपन्नस्यावयवित्वं प्रसज्यते । तथाहि । प्रतिज्ञादिवाक्यानि वाद के पांच अवयव Jain Education International वाद के पांच अवयव वाद को पंचावयवोपपन्न कहा है । यहां पांच अवयवों से उपपन्न अर्थात निर्मित होना यह अर्थ कहना चाहिए किन्तु उन के मत में ( न्यायदर्शन में ) पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु के परमाणुओं और द्वयणुकों आदि से भिन्न कोई दूसरे अवयव नही माने गये हैं तथा वाद इन ( परमाणु आदि अवयवों ) से निर्मित नहीं होता । वाद पृथ्वी आदि से निर्मित अवयवी नहीं है, वह विवादग्रस्त विषय के बारे में विचार के रूप का होता है, अतः वह वस्त्र आदि के समान अवयवों से निष्पन्न नहीं होता । प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पांच अवयव हैं उन से बाद निष्पन्न होता है यह कहना भी ठीक नही क्यों कि प्रतिज्ञा आदि वाक्य होते हैं, वे शब्दों से. निर्मित हैं तथा न्याय मत में शब्द को आकाश का गुण माना है अतः उस में अवयवों का रूप नहीं हो सकता । इसी को अनुमान के रूप में प्रस्तुत करते हैं - प्रतिज्ञा आदि वाक्य अवयव नही हो सकते क्यों कि वे वीणावादन आदि के समान शब्द हैं तथा रूप आदि के समान स्पर्शादि रहित है तथा गुण हैं एवं अमूर्त हैं । वाद भी अवयवों से निष्पन्न नहीं होता, वह अवयवी नहीं है, द्रव्य नही है; मूर्त नही है तथा स्पर्श आदि से रहित हैं अतः रूप १०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184