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प्रमाप्रमेयम्
[१.१०६-~त्वात् चतुरङ्गत्वात् लाभपूजाख्यातिकामैः प्रवृत्तत्त्वात् समत्सरैः कृतत्वात् प्रतिवादिस्खलितमात्रपर्यवसानत्वात् छलादिरहितत्वात् श्रीहर्षकथावत् । तथा वादस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणरहितादिमान् चतुरङ्गादिरहितत्वात् श्रीहर्षकथावत् इति पूर्वपूर्वप्रसाध्यत्वे इतरे पञ्च हेतुत्वेन द्रष्टव्याः । तत् सकलहेतुसमर्थनार्थ च वादस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणरहितादिमान् अविजिगीषुविषयत्वात् श्रीहर्षकथावत् इत्यपरः कश्चित् तार्किकः कथात्रयं प्रत्यतिष्टिपत् तदेतत् सर्व क्रमेण विचार्यते ॥ [१०६. वादलक्षणखण्डनम् ]
तत्र प्राचीनपक्षे साधनं दूषणं चापि सम्यगेव प्रयुज्यते इति वादलक्षणम् असमञ्जसम् । वादिना पक्षहेतुदृष्टान्तदोपवर्जितसत्साधनोपन्यासे प्रतिवादिनः सद्षणोद्भावनासंभवात् । प्रतिवादिनाव्याप्तिपक्ष
(इस के प्रतिकूल) वाद में तत्त्व के निश्चय का संरक्षण आदि उपर्युक्त बातें नही होती, क्यों कि चार अंगों से संपन्न होना आदि सयुंक्त बातें उस मे नहीं होती, इस के उदाहरण के रूप में श्रीहर्ष की कथा (वाद ) समझना चाहिए। इन उपर्युक्त ( तत्त्व का संरक्षक होना आदि पांच ) बातों में पहली साध्य हो तो बाद की उस की साधक हेतु होती है ऐसा समझना चाहिए । इन सभी हेतुओं का समर्थन इस प्रकार होता है - वाद में तत्त्व के निश्चय का संरक्षण आदि बातें नहीं होती क्यों कि वह विजय की इच्छा से नहीं किया जाता उदाहरणार्थ - श्रीहर्ष की कथा (वाद)। इस प्रकार किसी दुसर तार्किक ( तर्कशास्त्रज्ञ विद्वान) ने तीन कथाओं की स्थापना की है। अब इन सब बातों का क्रमशः विचार करेंगे। वाद के लक्षण का खण्डन
उपर्युक्त वाद-लक्षण में पहले पक्ष ने यह कहा है कि बाद में साधन और दूषण राचत हो तो ही उन का प्रयोग किया जाता है-यह कथन सुसंगत नही है । जव वादी ऐसे उचित साधन (हेतु) का प्रयोग करे जिस में पक्ष, साध्य या दृष्टान्त का कोई दोष न हो तो प्रतिवादी उस हेतु में उचित दृषण नहीं बतला सकता । यदि प्रतिवादी कोई ऐसा उचित दूषण. बतलाता है जिस से हेतु की व्याप्ति में या पक्ष का धर्म होने में गलती निश्चित
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