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प्रमाप्रमेयम्
श्रीतालं खरतालं वा पत्रं स्वेष्टार्थसाधकम् । वितस्तिहस्तमात्रं वा राजद्वारे शुभावहम् ॥ ९३ ॥ [ १०२. पत्रविचारे जयपराजयौ ]
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ज्ञातपत्रार्थको विद्वान् पत्रस्थमनुमानकम् । अनूद्य दूषणं ब्रूयान्नान्यदर्थान्तरोकितः ॥ ९४ ॥ अङ्गीकृतं वस्तु विहाय विद्वान् भीतेः प्रसंगान्तरमर्थमाह । तदास्य कृत्वा वचनोपरोधं स्वपक्षसिद्धावितरो यतेत ॥ ९५ ॥ पत्रार्थ न विजानाति यदि संपृच्छतां परः । सोऽपि सम्यग् वदेत् स्वार्थे ततो दूषणभूषणे ॥ ९६ ॥ असंकेता प्रसिद्धादिपदैः पत्रार्थबोधनम् । प्रवादिनो न जायेत तावता न पराजयः ॥ ९७ ॥
[१.१०२
देते हैं । अपने इष्ट तत्त्व को सिद्ध करनेवाला शुभसूचक पत्र सोने का, चांदी का, तांबे का अथवा मूर्जवृक्ष का हो सकता है, उसे राजसभा के द्वार पर (प्रस्तुत किया जाता है ) । राजसभा के द्वार पर शुभसूचक पत्र अपने इष्ट अर्थ को सिद्ध करनेवाला होना चाहिये, वह श्रीताल अथवा खरताल वृक्ष का भी हो सकता है, वह एक बालिश्त या एक हाथ लम्बा होना चाहिये ।
पत्र के विषय में जय और पराजय की व्यवस्था
पत्र के अर्थ को जान कर ( प्रतिपक्षी ) विद्वान पत्र में वर्णित अनुमान को दुहराए तथा उस में दोष बताये, अन्य चर्चा न करे क्यों कि वह ( दूसरे विषय की चर्चा करना) विषयान्तर होगा । ( पत्र में ) ली हुई बात को छोड कर ( प्रतिपक्षी ) विद्वान ( पराजय के ) डर से विषयान्तर करके कोई चाक्य कहे तो उस के बोलने को रोक कर दूसरा (पत्र का प्रयोग करनेवाला चादी) अपने पक्ष को सिद्ध करने का प्रयत्न करे । पूछने पर भी यदि प्रतिपक्षी पत्र के अर्थ को न समझे तो वादी अपने अर्थ को योग्य रीति से बतलाये, उसके बाद दोष और गुणों की चर्चा की जाय । संकेतरहित " ( वे शब्द जिन का विशिष्ट अर्थ में प्रयोग रूढ नहीं है ) अथवा अप्रसिद्ध " ( वे शब्द जिन का प्रयोग प्रायः नहीं होता ) शब्दों के कारण प्रतिरक्षी पत्र 'के अर्थ को न समझ सके तो उतने से ही उस का पराजय नहीं होता ।
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