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- १.१०१]
पत्र का स्वरूप
तथा चेदमिति प्रोक्ते चत्वारोऽवयवा मताः ।
तस्मान तथेति निर्देशे पञ्च पत्रस्य कस्यचित् ॥ ८९ ॥ ( उपर्युक्त ) इति निर्देशोऽप्यस्ति ॥
[ १०१. पत्रस्वरूपम् ]
८९.
चायन्ते वा पदान्यस्मिन् परेभ्यो विजिगीषुणा ।
कुतश्चिदिति पत्रं स्याल्लोके शास्त्रे च रुदितः॥ ९० ॥ ( पत्रपरीक्षा पृ. २ मुख्यं पदान्वयं वाक्यं लिप्यामारोप्यते लिपेः । पत्रस्थत्वाच्च तत् पत्रम् उपचारोपचारतः ॥ ९१ ॥ तत्पत्रेण कीदृक्षेण भवितव्यमित्युक्ते वक्ति । सौवर्ण राजतं ताम्रं भूर्जपत्रमथापरम् । स्वेष्टप्रसाधकं पत्रं राजद्वारे शुभावहम् ॥ ९२ ॥
का उल्लेख है; आरेकान्तात्मकत्व अर्थात् प्रमेयात्मकत्व अर्थात् प्रमेयत्व आरेकान्तात्मकत्वतः अर्थात् प्रमेयत्व के कारण; इस प्रकार पूरे वाक्य का तात्पर्य हुआ- यदन्तराणीयम् (विश्व) चित्रात् ( अनेकान्तात्मक है ) आरेकान्तात्मकत्वतः ( क्यों कि वह विश्व प्रमेय है, सब प्रमेय अनेकान्तात्मक होते. हैं अतः विश्व अनेकान्तात्मक है ) ।
पत्र का स्वरूप
विजय की इच्छा रखनेवाला (वादी) प्रतिवादी से अपने पदों (शब्दों) की इस में किसी तरह रक्षा करता है ( गूढ शब्दों का प्रयोग कर के प्रतिवादी से अपने वाक्य की रक्षा करता है) इस लिए इसे ( इस गूढ वाक्य ( को ) लोगों के व्यवहार में तथा शास्त्र चर्चा में रूढि के कारण पत्र कहते हैं ( प पद तथा त्र रक्षक अतः पत्र = पदों का रक्षक ऐसा यहां शब्द - च्छेद किया है ) । मुख्यतः वाक्य शब्दों से बनता है, लिपि में वाक्य होने का आरोप किया जाता है ( वाक्य के शब्द लिपि में अंकित किये जाने पर व्यवहार से उन लिपि - चिन्हों को भी वाक्य कहा जाता है ) तथा ये लिपिचिन्ह पत्र पर अंकित होते हैं अतः उपचार के भी उपचार से उस पत्र को भी वाक्य कहते हैं (और इस तरह वादी द्वारा प्रयुक्त गूढ वाक्य को पत्र यह संज्ञा मिलती है ) । वह पत्र कैसा होना चाहिये यह पूछने पर उत्तर
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