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८८ प्रमाप्रमेयम्
[१.१०.०---- [१००. पत्रस्य अङ्गानि]
पञ्चावयवान् योगश्चतुरो मीमांसकश्च सांख्यस्त्रीन् ।
जैनो द्वौ ल च बौद्धस्त्वेकं हेतुं निरूपयति ॥ ८७ ॥ अपि च जैनमते
चित्राद्यदन्तराणीयमारेकान्तात्मकत्वतः। यदित्थं न तदित्थं न यथा किंचिदिति त्रयः ॥ ८८ ॥
( पत्रपरीक्षा पृ. १०) - wwwmar ..... पत्र के अंग
पत्र ( में वर्णित अनुमान वाक्य के पांच अवयव होने चाहिएं ऐसा नैयायिक कहते हैं, मीमांसक चार, सांख्य तीन, जैन दो तथा बौद्ध केवल हेतु इस एक ही अवयवं को आवश्यक समझते हैं । कहीं कहीं जैन मत में भी (यहां की एक पंक्ति का अर्थ नीचे देखिए ) जो ऐसा नहीं है वह ऐसा नहीं होता जैसे अमुक ये तीन अवयव होते हैं (उदाहरणार्थ-जो धूमयुक्त नही है वह अग्नियुक्त नही होता जैसे सरोवर । और यह वैसा है ऐसा कहने पर चार अवयव होते हैं (उदा०-और यह पर्वत धूमयुक्त है ) । इसलिए वह ऐसा है ऐसा कहने पर पांच अवयव होते हैं ( उदा० -इसलिए यह पर्वत अग्नियुक्त है ) ऐसा वर्णन भी पाया जाता है।
(चित्रात् आदि पंक्ति का स्पष्टीकरण-यहां के तीन शब्दों का स्पष्टी-- करण विद्यानन्दि स्वामी के कथनानुसार इस प्रकार है-चित्र अर्थात् एक,, अनेक, भेद, अभेद, नित्य, अनित्य आदि विविधताओं को अतति अर्थात् व्याप्त करता है वह चित्रात् अर्थात् अनेकान्तात्मक है; यदन्त का अर्थ विश्व है क्यों कि सर्वनामों की गणना में विश्व शब्द के बाद यद् शब्द आता है, यद् जिसके बाद में आता है वह यदन्त अर्थात् विश्व शब्द है; राणीय अर्थात् कहने योग्य क्यों कि रा धातु का अर्थ शब्द करना यह होता है; यदन्तराणीय अर्थात् यदन्त इस शब्द द्वारा कहने योग्य अर्थात् विश्व; यदन्तराणीयम् चित्रात् अर्थात् विश्व अनेकात्तात्मक है; आरेका अर्थात् संशय, आरेकान्त अर्थात् प्रमेय क्यों कि न्यायदर्शन के प्रथम सूत्र में वर्णित सोलह पदार्थों में प्रमेय के बाद संशय शब्द
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