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सभासद
प्रानि सप्तभिर्भाव्यमथवा पञ्चभित्रिभिः ।
मतद्वयविशेषज्ञैः वयंभीरुसमासैः॥ ५३ ।। तथा चोक्तम्।
दृष्टवादैः श्रुतज्येष्ठैः त्रिभिः पञ्चभिरेव वा।
माध्यस्थ्यादिगुणोपेतैः भवितव्यं परीक्षकैः ॥ ५४॥ अलाभे एकेनापि पर्याप्तम्।
नार्थसंबन्धिनो नाप्ता न सहाया न वैरिणः । न दृष्टदोषा मध्यस्था न व्याध्यार्ता न दूषिताः ॥ ५५॥ वादिनी स्पर्धयेद् वृत्तो सभ्यैः सारेतरेक्षिभिः । राज्ञा च विनियन्तव्यौ तत्सांनिध्यं वृथान्यथा ॥५६॥ आज्ञागाम्भीर्यदातृत्वविवेकनिधिभर्तृकाम् । सभामानिविशेन्नेयादनिशं बहुनायिकाम् ।। ५७ ।।। अज्ञाततत्त्वचेतोभिः दुराग्रहमलीमसैः। युद्धमेव भवेत् गोष्ठयां दण्डादण्डि कचाकचि ॥५८ ॥
हैं, जिन का अध्ययन बढा चढा है, तथा जो तटस्थता आदि गुणों से युक्त हैं ऐसे तीन या पांच परीक्षक ( सभासद) होने चाहिएं । यदि (ऐसे अधिक परीक्षक ) न मिले तो एक भी काफी होता है । सभासद (वादी अथवा प्रतिवादी से) धन के मामलों में संबंधित (कर्जदार या साहूकार) न हों, वे उन के रिश्तेदार न हों, मित्र न हों तथा शत्रु भी न हों, वे दोष देखनेवाले, रोग से दुखी या अन्य दोष से दूषित न हों, तटस्थ हों। (अनुमान का) सार तथा निस्सार होना जाननेवाले सभासदों से घिरा हुआ राजा वादी तथा प्रतिवादी में वाद कराये, राजा उन्हें नियन्त्रित भी करे (स्वैर बर्ताव न करने दे) अन्यथा उस का समीप होना व्यर्थ होगा। ऐसी सभा में जाना चाहिए जिस का स्वामी (राजा) आज्ञा देनेवाला, गम्भीर, उदार, व विवेकशील हो । ऐसी सभा में कभी न जाये जिस में बहुतसे नेता हों (यदि बहुतसे नेता होते हैं तो उन में आपस में न पटने पर वाद में विघ्न आते हैं)। जिन के मन में तत्त्वों का ज्ञान नहीं है, जो दुराग्रह से मलिन हैं ऐसे लोगों के साथ चर्चा करने में डण्डे मार कर तथा केश घसीट कर लडाई ही होती
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