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-१.९१] वाद के चार अंग
७९ [९०, चत्वारि बादाङ्गानि ।।
मात्सर्येण विवादः स्यात् चतुरङ्गश्चतुर्विधः ।
प्रतिज्ञातार्थसिद्धयन्ततत्त्वात् लोकविवादवत् ॥४४॥ अङ्गानि चत्वारि भवन्ति वादे सैन्ये यथा भूमिपतीश्वराणाम् ।
सभापतिः सभ्यजनः प्रवादी वादी च सर्वे स्वगुणैरुपेताः॥ ४५ ॥ [९१. सभापतिः] तत्र सभापतेः लक्षणम् ।
समासः कृपालुश्च सर्वसिद्धान्ततत्त्ववित् । अबाधितार्थसंग्राही बाधितार्थविहायकः ॥ ४६ ।। आज्ञावान् धार्मिको दाता विद्वद्गोष्ठीप्रियः सुधीः । नियन्तान्यायवृत्तीनां राजा स स्यात् सभापतिः॥४७ ॥ आदिशन् वादयेद् वादे वादिनं प्रतिवादिना । न स्वयं विवदेत् ताभ्यां धर्मतत्त्वविचारकः ॥ ४८ ॥
वाद के चार अंग
(वादी और प्रतिवादी के ) मत्सर से जो विवाद होता है वह चार प्रकार का तथा चार अंगों से संपन्न होता है । लोगों के विवाद के समान यह विवाद भी प्रतिज्ञा किये हुए अर्थ की सिद्धि होने तक चलता है। राजाओं के सैन्य में जिस तरह चार अंग (हाथी, घोडे, रथ और पदाति) होते हैं उसी तरह वाद में चार अंग होते हैं। अपने गुणों से युक्त वे सब अंग इस प्रकार हैं - सभापति, सभ्यजन, प्रतिवादी तथा वादी ।। सभापति
उन (चार अंगों) में सभापति का लक्षण इस प्रकार है । वह राजा सभापति होना चाहिए जो समझदार, दयालु, सब सिद्धान्तों के तत्त्वों को जाननेवाला, अबाधित अर्थ का संग्रह कर के बाधित अर्थ को छोडनेवाला, आज्ञा देने में समर्थ, धार्मिक, दानशील, विद्वानों की चर्चा जिसे प्रिय है ऐसा, बुद्धिमान् , व अन्याय के बरताव को नियंत्रित करनेवाला हो । सभापति चादी को आदेश देते हुए प्रतिवादी से वाद कराये। धर्म के तत्त्वों का विचार
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