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प्रमाप्रमेयम्
[१.८९
यशोवधाय वृत्तेन तत्त्वविप्लवकारिणा। सतोऽपि त्रुवता वादी वादं कुर्यात् त्रिभिः सह ॥ ३२ ॥ न रात्रौ नापि चैकान्ते नैवासाक्षिकमाचरेत् ।
विवाद मूर्खसभ्यानां परितो मूर्ख भूपतेः ॥ ४० ॥ दुराग्रहो मूर्खता।
प्रतिज्ञा तु न कर्तव्या वादे युद्धे च धीमता। फलमेव सतामाह सत्यासत्यव्यवस्थितिम ॥ ४१ ॥ द्रुतं विलम्बितं क्लिष्टम् अव्यक्तमनुनासिकम् । अप्रसिद्धपदं वादे न ब्रूयात् शास्त्रवित् सदा ॥ ४२ ॥ ब्रम एव विवादः स्याद् यदि युक्तः सदुक्तिभिः । अथ यष्टिजपेटाभिः तत्र वाचंयमा वयम् ।। ४३ ॥
सोने के गुण क्या कसौटी के पत्थर पर प्रकट नही होते? ( यद्यपि सोना और पत्थर परस्पर समान नही हैं तथापि उन के संघर्ष से सोने के गुण स्पष्ट होते हैं उसी प्रकार विद्वान व्यक्ति अभिमानी अल्पज्ञ के साथ वाद करे तो उस की विद्वत्ता की कीर्ति बढती है)। केवल दूसरों से संघर्ष करने के आग्रह से अथवा गर्व से जो विद्वान या राजा विवाद या युद्ध करते हैं वे असुरों (राक्षसों ) जैसी वृत्ति के हैं, धर्म के अनुकूल वृत्ति के नही । ( प्रतिपक्षी की) कीर्ति नष्ट करने का जिस ने निश्चय किया है तथा जो तत्त्वोंका विप्लव करता है (तात्त्विक चर्चा में गडबडी फैलाना ही जिस का उद्देश है, कोई तत्त्व सिद्ध करना जिसे इष्ट नही) उस से भी वादी तीन सहयोगियों के साथ वाद करे । रात्रि में, एकान्त में, तथा बिना किसी साक्षी के विवाद न करे (क्यों कि ऐसे बाद में विजय का लाभ नहीं मिलता ); जहां सभासद मूर्ख हों अथवा राजा मूर्ख हो वहां वाद न करे, यहां मूर्खता का तात्पर्य दुराग्रह से है ( यदि सभासद या राजा दुराग्रही हों तो वे पक्षपात करेंगे अतः ऐसी सभा में वाद न करे)। वाद में तथा युद्ध में बुद्धिमान व्यक्ति प्रतिज्ञा न करे (शर्त न लगाये) सत्पुरुषों के लिए ( वाद या युद्ध का ) फल ही सत्य और असत्य का निर्णय बतलाता है । शास्त्र को जाननेवाला वादी वाद में बहुत जलदी, बहुत धीरे, बहुत कठिन, अस्पष्ट, नाक में अथवा अप्रसिद्ध शब्द न बोले । यदि उचित वाक्यों से युक्त वाद हो तो हम बोलेंगे ही, किन्तु लाठी या थप्पडों से वाद होना हो तो वहां हम चुप ही रहते हैं ( ऐसी योग्य वादी की वृत्ति होनी चाहिए)।
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