________________
प्रमाप्रमेयम्
[१.९२
सभापतिर्वदेद वादे साधनं दूषणं यदि। को विवादात् घटेत् तेन कुतस्त्यस्तत्त्वनिश्चयः ॥ ४२ ॥ जानन्नुभयसिद्धान्तौ गुणदोषौ तयोर्मती।
राजा सभ्यैर्विचार्येव देयाज्जयपराजयौ ॥ ५० ॥ [९२. सभ्याः ] सभ्यानां लक्षणमुच्यते। ___ अपक्षपातिनः प्राज्ञाः स्वयमुद्ग्रहणे क्षमाः ।
सर्वसिद्धान्तसारज्ञाः सभ्या दुर्वाक्यवारकाः ॥ ५१ ॥ उक्तं च।
अपक्षपातिनः प्राज्ञाः सिद्धान्तद्वयवेदिनः । असवादनिषेद्धारः प्राश्निकाः प्रग्रहा इव ॥५२॥
(प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. १९५)
करते हुए वह स्वयं उन से विवाद न करे | यदि सभापति ही बाद में साधन या दूषण बताये तो उस से विवाद केस होगा तथा तत्त्व का निश्चय कह से होगा ( तात्पर्य - सभापति का कार्य निर्णय देना है, स्वयं वाद करना नहीं)। दोनों पक्षों के सिद्धान्तों को, उन के गुणदोषां को तथा विचारों
को जानते हुए राजा सभासदां से विचार करके ही जय अथवा पराजय का निर्णय दे। सभासद
अब सभासदों का लक्षण बतलाते हैं। जो पक्षपाती नहीं है, बुद्धिमान हैं, स्वयं तत्त्व को समझ सकते हैं, सभी सिद्धान्ता के तात्पर्य को जानते हैं तथा गलत वचनों को रोक सकते हैं ये सभासद होते हैं। कहा भी है - पक्षपात न करनेवाले, बुद्धिमान, दोनों सिद्धान्तों को जाननेवाले, तथा गलत वचनों को रोकनवाले प्राश्निक ( सभासद) प्रग्रह के ( लगाम के) समान होते हैं ( दोनों पक्षों को नियन्त्रित कर उचित मार्ग पर बनाये रखते हैं)। सभासद सात, पांच या तीन होने चाहिएं, वे दोनों मतों के विशेषों को जाननेवाले हों, समझदार हों तथा जो चीजें छोडने योग्य हैं उन से (अपशब्द आदि से ) दूर रहनेवाले हों। कहा भी है - जिन्हों ने कई बाद देखे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org