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वादी और प्रतिवादी विद्वद्योगैरविद्वांसो यत्र यत्र प्रपूजिताः। तत्र सद्यः सतां मृत्युः अर्थहानिः प्रजायते ॥ ६४ ॥ व्याधिः पीडा मनोग्लानिरनावृष्टिर्भयं ततः । पक्षपातं विना तत्त्वज्ञानिनं मानयेद भृशम् ।। ६५ । राज्ये सप्ताङ्गसंपत्तिरायुःसौख्याभिवर्धनम् । सुवृष्टिः सुफलं क्षेममारोग्यं तत्प्रपूजनात् ॥ ६६ ॥ यो दद्यादाश्रयान्नादि तत्वयाथात्म्यवेदिने ।
स भुक्त्वा याति निर्वाणमन्येभ्यो भवसंततिः ॥ ६ ॥ कुत एतत् । अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
ददाति यहि यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः ॥ ६८ ॥ इत्युक्तत्वात् ॥
( इष्टोपदेश श्लो. २३) [९४. वादिप्रतिवादिनौ ]
वादिलक्षणमुच्यते। विदितस्वपरैतिह्यः कविताप्रतिपत्तिमान् क्षमी वाग्मी। अनुयुक्ते प्रतिवक्ता कृतपक्षपरिग्रहो वादी ॥ ६९ ।।
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के साथ अविद्वानों का भी आदर हो वहां तत्काल सज्जनों की मृत्यु तथा धन की हानि होती है, तथा रोग, दुःख, मन की उदासी, अनावृष्टि और भय होता है । इस लिए पक्षपात न करते हुए तत्त्वज्ञानी का बहुत सम्मान करना चाहिए । तत्त्वज्ञानी के आदर से राज्य में सातों अंगों की प्राप्ति होती हैं, आयु और सुख बढता है, अच्छी वर्षा होती है तथा फल अच्छा मिलता है, सर्वत्र कुशल तथा आरोग्य रहता है । तत्त्वों के वास्तविक ज्ञाता को जो आश्रय, अन्न आदि देता है वह उपभोग प्राप्त कर अन्त में निर्वाण प्राप्त करता है, दूसरे लोग संसार की परंपरा में ही भ्रमण करते रहते हैं । ऐसा क्यों कहते हैं ? कहा भी है- अज्ञान की उपासना से अज्ञान प्राप्त होता है तथा ज्ञानी के आश्रय से ज्ञान मिलता है, यह वचन मुप्रसिद्ध है कि जिस के पास जो हो वही वह दे सकता है। वादी और प्रतिवादी
अब बादी का लक्षण कहते हैं - अपने तथा दूसरे (प्रतिपक्षी) के
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