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-१.५२] वर्ण्यसमा-अवर्ण्यसमा नित्यमश्रावणत्वेन व्या दृष्टं तदनित्यत्वं व्याप्यं शब्देऽङ्गीक्रियते तर्हि तद्व्यापकमश्रावणत्वमप्यङ्गोक्रियेत इत्युक्ते उत्कर्षसमा जातिः। शब्दे व्यापकमश्रावणत्वं नेष्यते चेत् व्याप्यमनित्यत्वमपि नेष्टव्यमित्युक्ते अपकर्षसमा जातिः। अत्राश्रावणत्वमुपाधिरिति ज्ञातव्यम्। साधनाव्यापकः साध्यव्यापकः उपाधिरिति तस्य लक्षणम् ।। [५२. वावर्ण्यसमे] ____साध्यस्य यथा हेतुसाध्यत्वं तथा दृष्टान्तस्यापि हेतुसाध्यत्वेन भवितव्यमित्युक्ते वर्यसमा जातिः। दृष्टान्तवत साध्यस्याप्यहेतुसाध्यत्वं स्यादित्युक्ते अवर्यसमा जातिः ।।
चाहिए-यह उत्कर्षसमा जाति है । इसी अनुमान में व्यापक अश्रावणत्व शब्द में स्वीकार नहीं किया जा सकता (क्यों कि शब्द श्रावण है-सुना जाता है) तो उस का व्याप्य अनित्यत्व भी शब्द में नहीं मानना चाहिए यह कहना अपकर्षममा जाति है । यहा अश्रावणत्व को उपाधि समझना चाहिए। जो साध्य में व्यापक हो कि तु साधन में व्यापक न हो वह उपाधि है ऐना उस का क्षण है । ( उत्कर्षसमा तथा अपकर्षसमा ये जानियां अर्थात झूठे दुषण हैं क्या कि इन में प्रस्तुत अनुमान की मूलभूत व्याप्ति को जो कृतक होता है वह अनित्य होता है इस कथन को छोड कर दृष्टान्त के अश्रावणत्व इस गुण पर जोर दिया गया है तथा जो अश्रावण होता है वह अनित्य होता है यह गलत व्याप्ति बनाई गई हैं । यह व्याप्ति ही गलन होने से उस पर आधारित आक्षेप भी झूठे हैं)। वर्ण्यसमा तथा अवर्ण्यसमा जाति
__जिस प्रकार साध्य हे ! से सिद्ध किया जाता है उसी प्रकार दृष्टान्त भी है । से सिद्ध किया जाना चाहिए ऐसा कहना वर्ण्यसमा जाति है। जिस प्रकार दृष्टान्त हेतु से सिद्ध नही किया जाता उसी प्रकार साध्य भी हेतु के विना ही सिद्ध मानना चाहिर ऐमा कहना अवयं समा जाति है।
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