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प्रमाप्रमेयम्
[१.७१
तम् अननुभाषणम् अज्ञानम् अप्रतिभा विक्षेपः मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगः अपसिद्धान्तः हेत्वाभासाश्चेति द्वाविंशतिनिग्रहस्थानानि ॥
[७१. प्रतिज्ञाहानिः ]
उक्त हेतौ दूषणोद्भावने प्रतिपक्षाभ्युपगमः प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानम् । तस्योदाहरणम्-अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्युक्ते प्रध्वंसाभावेन हेतोः अनेकान्तोद्भावने नित्यो भवेदिति ॥
[ ७२. प्रतिज्ञान्तरम् ]
सिद्धसाध्यत्वेन हेतोः अकिंचित्करत्वोद्भावने पश्चात् साध्यविशेषणोपादानं प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानम् । उदाहरणम्-आद्यं चैतन्यं में गिनाये हैं वे ) बाईस निग्रहस्थान होते हैं ( इन का क्रमशः वर्णन अब करेंगे ) । प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान
कहे हुए हेतु में दोष बतलाने पर प्रतिपक्ष को स्वीकार कर लेना यह प्रतिज्ञाहानि नाम का निग्रहस्थान है । उस का उदाहरण है - शब्द अनित्य है क्यों कि वह घट जैसा कृतक है इस अनुमान के प्रयोग में हेतु में प्रध्वंसाभाव से अनेकान्त - दोष बतलाने पर ( प्रध्वंसाभाव कृतक है किन्तु अनित्य नही है अतः कृतकत्व यह हेतु प्रध्वंसाभाव इस नित्य विपक्ष में भी होने से अनैकान्तिक है ऐसा कहने पर ) यह कहना कि शब्द नित्य होना चाहिए । प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान
{ साध्य के पहले ही सिद्ध होने के कारण हेतु को अकिंचित्कर बतलाये जाने के बाद साध्य में किसी विशेषण का ग्रहण करना यह प्रतिज्ञान्तर नाम का निग्रहस्थान है । उदाहरण पहला ( जन्मसमय का ) चैतन्य चैतन्यपूर्वक होता है ( चैतन्यसे ही चैतन्य उत्पन्न होता है ) क्यों कि वह चेतना का विवर्त है जैसे कि मध्यकालीन चेतना विवर्त होता है इस अनुमान के प्रयोग करने पर पहले ( जन्मसमय के ) चैतन्य के पहले माता-पिता का चैतन्य होता ही है यह स्वीकृत है अतः
पहला
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