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प्रमाप्रमेयम्
[१.६८
दास्ति दावा | आधे शब्दस्यापि सर्वज्ञ सद्भावः । घर्मलद्भावप धर्मभावमन्तरेण अनुपपतेः । द्वितीये वदान ि तावित्य पवेति ॥ एकत्वातित्वले सर्वस्य अनित्यत्वपतिपादवन् अमित्यमा जतिः। सर्वमस्त्विं बखात् बज्वदिति ॥
[ ६८. कार्यसमा ]
कार्यत्वादिदेतूनां संदिग्धासिद्धत्वापादनं कार्यसमा जातिः ।
होता है या कभी कभी होता है, प्रथम पक्ष में (यदि शब्द में अनित्यत्व सर्वदा होता हो तो ) शब्द का भी अस्तित्व सर्वदा सिद्ध होगा क्यों कि गुणधर्म का अस्तित्व धर्मी के अस्तित्व के बिना नहीं हो सकता ( अतः यदि अनित्यत्व यह गुण सर्वदा रहेगा तो उस का धारक शब्द भी सर्वदा रहेगा अर्थात वह नित्य सिद्ध होगा ); दूसरे पक्ष में ( यदि शब्द में अनित्यत्व कभी कभी रहता है तो ) जब शब्द में अनित्यत्व यह गुणवन नहीं होगा तब वह नित्य ही सिद्ध होगा ( यह भी वास्तविक दूपण नहीं है; शब्द अनित्य है ऐसा वादी ने कहा तभी यह गृहीत हो जाता है कि जिस शब्द का एक समय अस्तित्व है - उसका दूसरे समय अभाव होगा, अतः उस में यह पूछना कि अनित्यत्व सर्वदा रहेगा या कभी कभी - निरर्थक है ) । एक वस्तु को अनित्य बतलाने पर सभी को अनित्य बतलाना यह अनित्यसमा जाति होती है । जैसे - पूर्वोक्त अनुमान में ( शब्द अनित्य है यह कहने पर ) कहना कि सभी वस्तुएं अनित्य हैं क्योंकि वे सत् हैं जैसे बट | ( परि. ६ : में आचार्य ने बतलाया है कि यह जाति विशेषसमा जाति से भिन्न नहीं है ) ।
कार्यसमा जाति
कार्यत्व इत्यादि हेतुओं को संदिग्धासिद्ध बतलाना यह कार्यसमा जाति होती है । जैसे पूर्वोक्त अनुमान में ( शब्द अनित्य है क्यों कि वह कृत है जैसे वट ) यह कहना कि शब्द का कृतक होना संदिग्ध है क्यों कि तालु आदि शब्द के कारण हैं अथवा केवल व्यक्त करनेवाले हैं इस विषय में वादियों में मतभेद है अतः ( शब्द कृतक है या नहीं इस विषय में) सन्देह होता है । ( यह जाति है अर्थात वास्तविक दूषण नहीं है क्यों
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