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सावयसमा वैधर्म्यसमा
अधिकरणनिरूपणं सामीप्यौपचारिकयोः इति गङ्गाशब्देन समीपस्योपचरितत्वात् ॥ [ ४९. जातयः ]
उक्ते हेतौ विपक्षेण साम्यापादनवाक्यतः ।
जातिः प्रतिविधिः प्रोक्ता विंशतिश्चतुरुत्तरा ॥ ११ ॥
साधर्म्य - वैधर्म्य - उत्कर्ष - अपकर्ष - वर्ण्य - अवर्ण्य - विकल्प - असिद्धादि प्राप्ति अप्राप्ति प्रसङ्ग-प्रतिदृष्टान्त- अनुत्पत्ति-संशय-प्रकरणअहेतु- अर्थापत्ति-अविशेष- उपपत्ति - उपलब्धि - अनुपलब्धि- नित्य- अनित्य कार्यसमा जातयः ॥
[ ५०. साधर्म्यवैधर्म्यसमे ]
तत्र स्थापना हेतौ प्रयुक्ते साधर्म्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिः । वैधम्र्येण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिः । तयोः उदाहरणम् । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदित्युक्ते जातिवाद्याह । घटसाधर्म्यात् के समीप ' इस अर्थ में हुआ है। अधिकरण का प्रयोग औपचारिक सामीप्य के अर्थ में होता है ऐसा नियम है ।
जातियाँ
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हेतु के कहने के बाद विपक्ष से समानता बतलानेवाले वाक्य से दिया हुआ उत्तर जाति कहलाता है । जातियाँ चौवीस हैं- साधर्म्यसमा वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा वर्ण्यसमा अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, असिद्धादिसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, प्रसङ्गसमा, प्रतिदृष्टान्तसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपपत्तिसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, नित्यसमा, अनित्यसमा तथा कार्यसमा ( इन का अब क्रमशः वर्णन करेंगे ) । साधर्म्यसमा तथा वैधर्म्यसमा जाति
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( किसी साध्य को ) स्थापित करनेवाले हेतु का प्रयोग करने पर उस की समानता से कोई आक्षेप उपस्थित करना यह साधर्म्यसमा जाति होती है तथा उस से भिन्नता बतला कर कोई आक्षेप उपस्थित करना यह वैधर्म्यसमा जाति है ! इन के उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं । शब्द अनित्य है क्योंकि
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