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संशयसमा
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प्रतियोगि कार्याभावात् न किंचित् प्रतीति तात्वादीनां कारणभावाभावः । कारणाभावे शब्दकार्य कुत उत्पद्येत यतोऽनित्यं स्यादिति ॥ [ ६०. संशयसमा ]
भूयोदर्शनात् निश्चितव्याप्तेः साधस्यवैधम्र्योपाधिप्रतिकूलतर्कादिना पक्षे संदेहापादनं संशयसमा जातिः । उपाधिप्रतिकूलतर्कादिकम् असद् दूषणं सद्दूषणेष्वपठितत्वात् अन्यतरपक्षनिर्णयाकारकत्वात् व्याप्तिपक्षधर्मवैकल्यानिश्चायकत्वात् पक्षे साध्यसंदेहापादकत्वात् जातित्वात् साधर्म्यवत् । अथ प्रत्यनुमानप्रतिकूलतर्कयोः को भेद इति चेत् एकस्मिन् धर्मिणि साध्यविपरीतप्रसाधकं प्रत्यनुमानम्, तदूधर्मिणि धर्म्यन्तरे वा विरुद्धप्रसाधकः प्रतिकूलतर्कः ॥
है; किन्तु कारण और कार्य का क्रमशः होना प्रत्यक्षसिद्ध है अतः इस आक्षेप को जाति (दूषणाभास ) कहते हैं, वास्तविक दूषण नही; जब शब्द प्रत्यक्ष द्वारा जाना जाता है तब शब्द उत्पन्न नही हो सकता यह आक्षेप काल्पनिक ही होगा, वास्तविक नहीं ) ।
संशयसमा जाति
बारबार देखने से जिस की व्याप्ति निश्चित हो चुकी है उस पक्ष में भी समानता, भिन्नता, उपाधि, प्रतिकूल तर्क आदि के द्वारा संदेह व्यक्त करना यह संशयसमा जाति होती है । उपावि, प्रतिकूलतर्क आदि झूठे दूषण हैं, वास्तविक दूषणों में इन का समावेश नही किया जाता, ये किसी एक पक्ष का निर्णय नही कर सकते, व्याप्ति की गलती या पक्ष के धर्म होने की गलती का निश्चय इन से नहीं हो सकता, वे केवल पक्ष में साध्य के होने के बारे में सन्देह व्यक्त करते हैं, अतः वे साधर्म्यसमा आदि के समान जाति हैं (ठे दूषण हैं, वास्तविक दूषण नहीं हैं ) । यहां प्रश्न होता है कि प्रत्यनुमान और प्रतिकूलतर्क में क्या भेद है ( क्यों कि प्रत्यनुमान से विरोध करने को प्रकरणसमा जाति कहते हैं यह अगले परिच्छेद में बताया है ) | - उत्तर यह है कि एक ही धर्मी ( धर्मयुक्त पक्ष ) में साध्य के विरुद्ध बात को सिद्ध करना चाहे वह प्रत्यनुमान होता है, उसी धर्मी में या किसी अन्य धर्मी में | विरुद्ध बात को सिद्ध करना चाहे वह प्रतिकूलतर्क होता है ।
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