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प्रमाप्रमेयम्
[१.६१[६१. प्रकरणसमा]
प्रत्यनुमानेन प्रत्यवस्थानं प्रकरणसमा जातिः। अनित्यः शब्दः वृतकत्वाद् घर वदिर व ते नित्यः .ब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववदिति ॥ [६२. अहेतुसमा]
त्रिकालेऽपि साधनासंभवेन प्रत्यवस्थानम् ॐ हेतुसमा जातिः पूर्वप्रयोगे अयं हेतः साध्यात् प्राक्कालभावी उत्तरकालभावी समकाल
प्रकरणसमा जाति
विरोधी अनुमान का प्रयोग कर रत्तर देना यह प्रकरणसम जानि है। जैसे - शब्द अनित्य है क्यों कि वह घट जैसा कृतक है इस अनुः न के उत्तर में यह कहना कि शब्द नित्य है क्यो कि वह शब्दत्व के समा.. श्रावण (सुनने योग्य ) है । ( वादी द्वारा उपस्थित किये गए हे न में दूषण बतलाना यह प्रतिवादी का पहला काम है, वह न करत हुए प्रतिकूल पक्ष का समर्थक
ना प्रस्तुत करना वाद की रीति के विरुद्ध है अतः इसे जाति अर्थात झूटा दृषण कहा है । अहेतु समा जाति
हीनो कालो में ( हेतु से स ध्य को) सिद्ध करना असंभव है यह कह कर ( अनुमान का विरोध करना यह हेत्रमा जाति है। जैस - प्रोक्त उनम्न में ( ३ब्द कृत्व है अतः नित्य है इस क्थन में ) यह कहना कि यह हेतु ( शब्द का वृत्क होन) समय के (शब्द क अनित्य हो के) पालं के समय विद्यमान होता है. बाद के समय होता है या समान समय में होता है; याद हेतु साध्य के पहले हो गया हो तो उस समय साध्य के न होने से हेतु किसे सिद्ध करंगा - अर्थात हेत से सिद्ध करनेयोग्य साध्य ही रब नहीं है; यदि हेतु साध्य के बाद होता है तो वह साध्य हृत के पहले ही रद्ध है फिर हेतु के प्रयोग से क्या लाभ; तथा यदि हेतु और साध्य समान समय में है तो उन में साध्यसाधनसंबंध नही हो सकता क्यों कि वे समकालीन है, जैसे गाय के दाहिने और बायें सीग में साध्यसाधनसंबन्ध नहीं हो सकता ( एक सींग दूसरे का कारण
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