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-~-१.५५]
अन्यतरासिद्धसमा धर्मो वा । आद्ये अद्यापि साध्यसद्भावस्य असिद्धत्वात् तद्धर्मस्य हेतोः असिद्धत्वं द्वितीये साध्यविपरीतस्य धर्मत्वात् विरुद्धत्वम्। तृतीये उभयधर्मत्वादनैकान्तिक इत्यादि । [५५. अन्यतरासिद्धसमा]
एकान्तानेकान्तादिविकल्पेन हेतोः अन्यतरासिद्धत्वापादनम् अन्यतरासिद्धसमा जातिः। पूर्वप्रयोगे कृतकत्वादयं हेतुः एकान्तः अनेकान्तः वा, आये जैनानामसिद्धः,द्वितीये अन्येषामसिद्धः। अक्षणिक क्षणिको वा,
ही मानना होगा, यदि दूसरा पक्ष स्वीकार करें ( हेतु का साध्य में अभाव मानें ) तो वह हेतु विरुद्ध होगा क्यों कि वह साध्य के विरुद्ध गुणधर्म होगा, तथा तीसरे पक्ष में दोनों ( सद्भाव और अभाव ) मानें तो वह हेतु अनैकान्तिक होगा (क्यों कि साध्य में उस का अस्तित्व या अभाव निश्चित नही है) (यह असिद्धादिसमा जाति है, वास्तविक दूषण नहीं, क्यों कि इस में साध्य और हेतु के संबंध को गलत ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत उदाहरण में अनित्य होना यह साध्य है, इस में कृतक होना यह हेतु है या उस का अभाव है आदि प्रश्न निरर्थक हैं, आक्षेप करनेवाले को यह बताना चाहिए कि जो कृतक होता है वह अनित्य होता है इस व्याप्ति में क्या दोष है, वह न बतला कर दूसरी कल्पनाएं करने से कोई लाभ नहीं)। अन्यतरासिद्धसमा जाति
एकान्त, अनेकान्त आदि विकल्पों से हेतु को किसी एक पक्ष के लिए असिद्ध बतलाना यह अन्यतरासिद्धसमा जाति होती है। उदाहरणार्थ - पूर्वोक्त अनुमान में (शब्द अनित्य है क्यों कि वह कृतक है इस कथन में) यह कहना कि यहां कृतक होना यह हेतु एकान्त से है या अनेकान्तसे है, यदि वह एकान्त से हो तो जैनों के लिए वह असिद्ध होगा (क्यों कि जैन एकान को नही मानते) तथा यदि वह अनेकान्त से हो तो बाकी सब मतों के लिए असिद्ध होगा (क्यों कि जैनेतर मत अनेकान्त को नहीं मानते)। इसी तरह यह हेतु अक्षणिक है या क्षणिक है, यदि अक्षणिक हो तो बौद्धों के लिए वह असिद्ध होगा (क्यों कि बौद्ध सब वस्तुओं को क्षणिक मानते ई) तथा यदि क्षणिक हो तो अन्य सब मतों को अमान्य होगा (क्यों कि
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