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प्रमाप्रमेयम्
तिष्टिपत् । ब्राह्मणत्वं चतुर्वेदाभिशत्वे हेतुर्न भवति अनधीतेनानेकान्तात् कारणं न भवति अनधीतेऽपि तत्कारणत्वप्रसङ्गादिति । सोऽप्यभिप्रेतापरिज्ञानेन निगृहीतः स्यादिति । ब्राह्मणे चतुर्वेदाभिज्ञत्वसंभावनस्योक्त-त्वात् यथात्र क्षेत्रे प्रत्यक्षं संपनीपद्यत इति ॥
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[ ४८. उपचारच्छलम् ]
उपचारेण वक्त्रा यदभिधेयनिरूपणे । प्रधानत्वनिषेधे तदुपचारच्छलं भवेत् ॥ १० ॥
वादी गङ्गायां ग्रामः प्रतिवसतीत्यवादीत्। तत्र छलवादी प्रत्यवोचत् । गङ्गा नाम जलप्रवाहः, जलप्रवाहे ग्रामस्य अवस्थानासम्भवात् तदयुक्तमवादीस्त्वमिति । सोऽप्यभिप्रेतापरिज्ञानेन निगृहीतः स्यात् ।
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को जानने का हेतु नहीं है क्यों कि जो पढ़ा नही है उस से इस का अनेकान्त है ( जो पढ़ा नही है वह ब्राह्मण होने पर भी वेदों को नहीं जानता ); तथा ब्राह्मण होना चार वेदों को जानके का कारण भी नहीं हैं, यदि होता. तो जो पढ़ा नही है उस के विषय में भी वह वेदों को जानने का कारण होता । ऐसा छळवादी अभिप्रेत अर्थ को न समझने के दोष से दूषित होता है क्योंकि इस वाक्य में ब्राह्मण के चार वेदों के जानकार होने की संभावना व्यक्त की है और यह इस जगह प्रत्यक्षही देखा जाता है ( अतः वेदज्ञान की संभावना के मुख्य अर्थ को छोड कर उस के हेतु अथवा कारण की कल्पना कर निषेध करना व्यर्थ है - छल है ) ।
उपचारछल
वक्ता द्वारा विषय का वर्णन उपचार से किये जाने पर प्रधान अर्थ के निषेध पर जोर देना यह उपचारछल कहलाता है । उदाहरणार्थ - वादी ने. कहा कि गंगा पर गांव बसा है। यहां छलवादी ने कहा कि गंगा तो जल का प्रवाह हैं, जल के प्रवाह पर गांव नहीं बस सकता अतः आपने अयोग्य बात कही । ऐसा छलवादी अभिप्रेत अर्थ को न समझने के दोष से दूषित होता है क्योंकि यहां 'गंगा पर ' इस शब्द का प्रयोग उपचार से 'गंगा
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