Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 68
________________ —१०४४] तर्क के दोष पक्षे अनवस्था । प्रसिद्धव्याप्यव्यापकयोः मध्ये व्याप्याङ्गीकारे व्यापकाङ्गीकार सञ्जनमतिप्रसंगः। मायावादिभिः ब्रह्मस्वरूपस्य भ्रान्तिविषयस्य च प्रमातुरवेद्यत्वाङ्गीकारे ब्रह्मस्वरूपमसत् प्रमातुरवेद्यत्वाद् रज्जुसर्पवत्, रज्जुसर्पादि सद्रूपं प्रमातुरवेद्यत्वाद् ब्रह्मस्वरूपवदित्यादि ॥ [ ४४. तर्कदोषाः ] मूलशैथिल्यं मिथोविरोधः इष्टापादनं विपर्ययेऽपर्यवसानमिति तर्कदोषाश्चत्वारः । तत्र तर्कस्य मूलभूतव्याप्तेर्व्यभिचारो मूलशैथिल्यम् । अनिष्टापादकव्याप्तेः आपाद्यानिष्टस्य च विरोधो मिथोविरोधः । आपाद्यानिष्टधर्मः परस्येष्टश्चेत् इष्टापादनम् । व्याप्त्या परस्यानिष्टमापाद्य तद्विपर्यये पर्यवसानाकरणं विपर्ययेऽपर्यवसानम् ॥ भी स्वीकार करना पडेगा यह कथन अतिप्रसंग होता है, जैसे - - मायावादी यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्म का स्वरूप प्रमाता द्वारा जाना नही जा • सकता तथा भ्रम का विषय भी प्रमाता द्वारा जाना नहीं जा सकता, इस पर यह कहना कि ब्रह्म का स्वरूप प्रमाता द्वारा नही जाना जाता अतः वह रस्सी में प्रतीत होनेवाले सर्प के समान असत् है, अथवा रस्सी में प्रतीत होनेवाले सर्प आदि सत् है क्यों कि वे भी ब्रह्म के स्वरूप के समान ही प्रमाता द्वारा जाने नही जाते ( यह अतिप्रसंग कहलाता है ) । तर्क के दोष तर्क के चार दोष होते हैं - मूलशैथिल्य, मिथः विरोध, इष्टापादन तथा विपर्यय में अपर्यवसान । तर्क की मूलभूत व्याप्ति गलत होना यह मूल में शिथिलता नाम का पहला दोष है । ( प्रतिपक्षी के लिए ) अनिष्ट बात को सिद्ध करनेवाली व्याति में तथा ( उस व्याप्ति से ) सिद्ध होनेवाली अनिष्ट बात में (परस्पर) विरोध होना यह मिथः विरोध नाम का दूसरा दोष है । सिद्ध किया जानेवाला अनिष्ट गुण यदि प्रतिपक्षी को इष्ट ही हो तो वह इष्टापादन नाम का तीसरा दोष होता है । व्याप्ति के द्वारा प्रतिपक्षी के लिए अनिष्ट बात को बतला कर फिर उस की विरुद्ध बात को पूरा न करना यह विपर्यय में अपर्यवसान नाम का चौथा दोष होता है । Jain Education International ४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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