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प्रमाप्रमेयम्
[१.२५
तदभावस्यैव कल्पकाभावत्वात् असिद्धत्वादिति यावत् । अथ पक्षादन्यत्र विद्यमानत्वात् गमकत्वमिति चेत् तर्हि सर्वं सर्वस्य गमकं स्यादित्यतिप्रसज्यते ॥
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[ २५ हेतुलक्षणोपसंहारः ]
अथ निश्चितव्याप्तिकं सर्वे स्वव्यापकस्य सर्वस्य गमकमिति चेत् न चैतदत्रास्ति । कल्पकस्यास्य क्वापि व्याप्तिनिश्चयाभावात् । न तावत् सपक्षे तन्निश्चयः तस्य सपक्षाभावात् । अथ पक्षे एवास्य व्याप्तिनिश्चय इति चेन्न । अपक्षधर्मस्यास्य पक्षे अभावात् तत्र तनिश्चयानुपपत्तेः । पक्षे तस्य सद्भावेऽपि तत्र कल्प्यस्य निश्चये तेन कल्पकस्य व्याप्तिनिश्चयायोगात् तत्र तनिश्चये अर्थापत्तेः आनर्थक्यम् व्याप्तिनिश्चयात् पूर्वमेव पक्षे कल्प्यल्य निश्चितत्वात् । अनिश्चितव्याप्तिकस्यापक्षधर्मस्यापि गमकत्वे
इसी कारण वह साध्य का बोधक नहीं हो सकता वह असिद्ध होता है | पक्ष से अन्यत्र हेतु रहेगा और साध्य का बोध करायेगा यह कहना भी संभव नही क्यों कि ऐसा कहने से सभी हेतु सभी साध्यों के बोधक हो जायेंगे; (धुंआ रसोईघर में होगा और अग्नि का बोध पर्वतपर होगा ) यह अतिप्रसंग है । हेतु के लक्षण का समारोप
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जिस की व्याप्ति निश्चित है वह सब अपने व्यापक सत्र ( पदार्थों ) का बोध कराता है यह कहें तो वह बात भी यहां (जो पक्ष का धर्म नही हैं उस हेतु में ) नही पाई जाती । कारण यह है कि इस कल्पित हेतु की व्याप्ति का निश्चय ही कहीं नही हो सकता । उस की व्याप्ति का निश्चय सपक्ष में नही हो सकता क्यों कि उस के कोई सपक्ष ही नही है (जिस का पक्ष में अस्तित्व हो उसी के बारे में सपक्ष और विपक्ष की कल्पना संभव है, जिस का पक्ष ही न हो उस का सपक्ष कैसे हो सकता है ) । पक्ष में ही इस ( हेतु ) की व्याति का निश्चय होता है यह कथन भी योग्य नही । यह हेतु पक्ष का धर्म ही नही है अतः पक्ष में उस का अभाव है इसलिए पक्ष में इस की व्याप्ति का निश्चय संभव नहीं हो सकता । ( यहां एक वाक्य का अर्थ हमें ज्ञात नही हो सका ) । जिस की व्याप्ति निश्चित नही तथा जो पक्ष का
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