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[ १८. साध्यम् ]
प्रमाप्रमेयम्
स्वसिद्धं परासिद्धं साध्यम् । अनित्यः इति ॥
[ १९. हेतुः ]
व्याप्तिमान् पक्षधर्मो हेतुः । कृतकत्वात् इति । तस्य हेतोः पक्षधर्मत्वं पक्षे सवं विपक्षेऽसत्वम् असिद्धसाधकवम् अवाधितविषयत्वम् असत्प्रतिपक्षत्वमिति षड् गुणाः । तत्र साध्यधर्माधारो धर्मी पक्षः, पक्षे सर्वत्र हेतोः प्रवर्तनम् पक्षधर्मत्वम् । साध्यसमानधर्मा धर्मी सपक्षः सपक्षे सर्वत्र एकदेशे वा हेतोः प्रवर्तनं सपक्षे सखम्। साध्यविपरीतधर्मा धर्मी विपक्षः, विपक्षे सर्वत्र हेतोरप्रवर्तनं विपक्षेऽसत्वम् । प्रतिवादिनः संदिग्धविपर्यस्ताप्रतिपन्नम् असिद्धम्, तत्साधनं हेतोरसिद्धसाधनत्वम् | अबाधितसाध्ये पक्षे हेतोः प्रवर्तनम् अबाधितविषयत्वम् ।
[१.१८
साध्य
जो अपने लिए सिद्ध हो और दूसरें के लिए असिद्ध हो ( उसे सिद्ध कर बतलाना हो ) वह साध्य है, जैसे ( उपर्युक्त अनुमान में शब्द का) अनित्य होना ।
हेतु
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व्याप्ति से युक्त पक्ष के धर्म को हेतु कहते हैं । जैसे - ( उपर्युक्त अनुमान में ) क्योंकि ( शब्द ) कृतक है। हेतु के छह गुण होते हैं - पक्ष का धर्म होना, सपक्ष में अस्तित्व, विपक्ष में अभाव, ऐसी बात को सिद्ध करना जो अब तक सिद्ध नही हुई हो, ऐसी बात को सिद्ध करना जो बाधित न हो तथा जिस में प्रतिपक्ष संभव न हो । सिद्ध करने योग्य धर्म के आधार को पक्ष कहते हैं, पक्ष में हेतु का सर्वत्र अस्तित्व होना यह पक्षधर्मत्व नाम का पहला गुण है । साध्य के समान धर्म जिस धर्मी ( गुणयुक्त पदार्थ ) में होते हैं उसे सपक्ष कहते हैं, सपक्ष में सर्वत्र या एक हिस्से में हेतु के होने को सपक्ष में सत्त्व कहते हैं (यह दूसरा गुण है ) । साध्य के विरुद्ध धर्म जिस धर्मी में होते हैं उसे विपक्ष कहते हैं, विपक्ष में सर्वत्र हेतु का अभाव होना यह विपक्ष में असत्त्व नामका तीसरा गुग है । प्रतिवादी के लिए जो संदेहयुक्त, विपर्यास- युक्त या अज्ञात होता है उसे असिद्ध कहते हैं, ऐसे साध्य को सिद्ध
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