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[८. मनःपर्यायज्ञानम् ]
पर मनसि स्थितमर्थं मनसा पर्येति जानातीति मनःपर्यायज्ञानम् । ऋजुविपुलमती इति द्वैधम् । ऋजुमनोवाक्काय स्थितवर्तमान पुरुषचिन्तितमर्थ जानद् ऋजुमति । ऋजुवक्रमनोवाक्कायस्थित अतीतानागतवर्तमानपुरुषचिन्तितमर्थ जानद् विपुलमति ॥ [ ९. स्वसंवेदन प्रत्यक्षम् ]
सकलज्ञानानां स्वस्वरूप संवेदनं स्वसंवेदन प्रत्यक्षम् ॥ [ १०. ०. प्रत्यक्षाभासः ]
मनः पर्यययोगिस्वसंवेदन प्रत्यक्षादन्यत्र प्रत्यक्षाभासोऽपि । स च संशयविपर्यासभेदात् द्वेधा । अनध्यवसायस्य अभावत्वेन प्रत्यक्षाभासत्वावधि तथा सर्वावधि एवं विपुलमति मनःपर्यायज्ञान केवल चरमशरीरी मुनियों को ( जो उसी जन्म के अन्त में मुक्त होंगे उन्हीं को ) प्राप्त होता है । मनः पर्याय ज्ञान
प्रमाप्रमेयम्
दूसरे के मन में स्थित अर्थ- विचार आदि को मन से प्राप्त करे अर्थात जाने वह मनःपर्याय ज्ञान है । इस के दो प्रकार हैं- ऋजुमति तथा विपुलमति । सरल मन, वाणी तथा शरीर से युक्त वर्तमान समय के पुरुषों के विचारे हुए अर्थ को जाने वह ऋजुमति मनः पर्याय ज्ञान है । भूतकाल, भविष्यकाल तथा वर्तमानकाल के सरल तथा वक्र दोनों प्रकार के मन, वाणी तथा शरीर से युक्त पुरुषों के विचारे हुए अर्थ का जाने वह विपुलमति मनःपर्यायज्ञान है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष
[१.८
सभी ज्ञान अपने अपने स्वरूप को जानते हैं इसी ज्ञान को स्वसंवेदन -- प्रत्यक्ष कहते हैं ।
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प्रत्यक्षाभास
मनः पर्याय, योगिप्रत्यक्ष तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को छोड कर अन्यत्र ( दूसरे ) प्रत्यक्ष ज्ञानों के आभास भी होते हैं । उस के दो प्रकार हैं-संशय तथा विपर्यास | अनध्यवसाय ( निश्चय का अभाव ) प्रत्यक्षाभास नही है क्यों कि ( ज्ञान का ) अभाव यह उस का स्वरूप है ( गलत ज्ञान को.
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