Book Title: Pramapramey
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 26
________________ -~१.७] योगिप्रत्यक्ष माजातम् अवधिमन:पर्यायज्ञानमीषद्योगिप्रत्यक्षम्। पुद्गलान् संसारिजीवान् अवधीकृत्य जानातीत्यवधिज्ञानम् , देशपरमसर्वावधिमेदात् त्रिविधम् । तत्र देशावधिः भवप्रत्ययो गुणप्रत्ययश्च । भवप्रत्ययो देशावधे. मध्यमः। स च तीर्थकरकुमारदेवनारकाणां सर्वाङ्गोत्थः। गुणप्रत्ययः मनुष्यतिरश्चा नाभेरुपरितनस्वस्तिकनन्द्यावर्तादिशुभचिह्नोत्थः। तद्विभङ्गो नाभेरधस्तनद१राद्यशुभचिह्नोत्थः। देशावधेर्जघन्यः सामान्यमनुष्यतिरश्चाम्। उत्कृष्टः संयतानामेव । ऋजुमतिमनःपर्यायश्च। गुणप्रत्ययावधौ अनुगाम्यननुगाम्यवस्थितानवस्थितवर्धमानहीयमानभेदाश्च । परमावधिसर्वावधी चरमशरीरविरतानामेव । विपुलमतिमनःपर्यायश्च ॥ होता है उसे योगिप्रत्यक्ष कहते हैं। ज्ञान के आवरण के विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न हुए अवधिज्ञान तथा मनःपर्यायज्ञान ईषद्योगिप्रत्यक्ष हैं। पुद्गल तथा संसारी जीवों को विशिष्ट अवधि (मर्यादा ) तक जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। उस के तीन प्रकार हैं - देशावधि, परमावधि तथा सर्वावधि । देशावधि दो प्रकार का होता है-भवप्रत्यय तथा गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय (विशिष्ट जन्म के कारण प्राप्त होनेवाला) अवधिज्ञान देशावधि का मध्यम प्रकार है, वह तीर्थंकरों को बाल अवस्था में तथा देवों और नारकी जीवों को ( जन्मतः ) प्राप्त होता है तथा संपूर्ण शरीर में उद्भूत होता है । गुणप्रत्यय (तपस्या आदि विशिष्ट गुणों से प्राप्त होनेवाला) अवधिज्ञान . मनुष्य तथा तिर्यचों (पशु-पक्षियों ) को प्राप्त हो सकता है तथा नाभि के ऊपर के स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि शुभ चिन्हों से उद्भूत होता है ! इस ज्ञान का विभंग ( मिथ्यात्व से युक्त गुणप्रत्यय अवधिज्ञान) नाभि के नीचे के दर्दुर (मेंढक ) जैसे अशुभ चिन्हों से उद्भूत होता है। देशावधि का जवन्य प्रकार सामान्य मनुष्य तथा तिर्यचों को प्राप्त हो सकता है। देशावधि का उत्कृष्ट "प्रकार सिर्फ संयतों ( महाव्रतधारी मुनियों ) को ही प्राप्त हो सकता है । ऋजु. मति मनःपर्यायज्ञान भी संयतों को ही होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद होते हैं- अनुगामी (एक स्थान से दूमरे स्थान में साथ जाये वह ), अननुगामी (दूसरे स्थान में साथ न जानेवाला ), अवस्थित जिस की जानने की शक्ति स्थिर हो), अनवस्थित (जिस की जानने को शक्ति कम-अधिक होती हो ), वर्धमान (बढनेवाला) तथा हीयमान (कम होनेवाला)। परमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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