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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण तिर्यक्पदातिशुक्तेस्तिरिच्छिपाइकसिप्पी ।। १०४ ॥
तिर्यक्, इत्यादि शब्दोंको तिरिच्छि, इत्यादि आदेश होते हैं। उदा.-तिरिच्छि पेच्छइ, तिर्यक् पश्यति। पाइको पआई पदातिः। सिप्पी सुत्ती शुक्तिः ॥ १०४ ।। गोणाद्याः ॥ १०५ ।।
जिनके बारेमें प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम और वर्णविकार नहीं कहे हैं, ऐसे गोण, इत्यादि शब्द बहुलत्वसे निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-(१) गोणो गौ या गाय । यहाँ (गो के आगे) स्वार्थे ण आया है। (२) गोला गोदा ।- गोदा यानी गोदावरी। यहाँ द का ल हुआ है। कोई कहते हैं, गोला शब्द संस्कृत मेंभी है। (३) ओसायणं आपोशन या आचमन । (यहाँ) आपः शब्दको ओसा ऐसा आदेश, फिर सकारके आगे यकारका आगम (हुए हैं)। (अथवा)-नीहार अर्थमें ओसा यह देश्य शब्द है; उसका कण यानी ओसायण । (४) वाई वनराजि। यहाँ रेफका लोप हुआ है । (५) तल्लं तल्लडं तल्प शय्या। यहाँ ल का द्वित्व, प का लोप अथवा स्वार्थे ड (आये हैं)। (ल का द्वित्व) न होनेपर, तलं । (६) थोवो (७) थेवो थोको स्तोक या स्वल्प । यहाँ क का व और / अथवा ओ का ए, (और) सेवादिपाठमें होनेसे द्वित्व (हुए हैं)। (८) विरुअं विरुद्ध । यहाँ संयुक्त व्यंजनका लोप हुआ है। (९) आओ आप या जल। शरदादिपाठमें होनेसे, अन्त्य व्यंजनका अ और दीर्घ स्वर (हुए हैं)। (१०) गोसो गोसर्गः प्रत्यष या प्रभात । यहाँ र्ग का लोप हुआ है। (११) वोसिरणं व्युत्सर्जन या छोडना । यहाँ व्युत् का वो, सृजति ऐसा मानकर ज का र,
और (समें) समेंसे ऋ का इ (हुए हैं)। (१२) धिरत्थु धिगस्तु या धिक्कार हो । यहाँ ग का र हुआ है। (१३) पत्थेवा पाथेयं । यहाँ थाका द्वित्व और वकारका आगम (हुए हैं)। (१४) वेलंबो (१५) वडंबो विडम्बना ।---यहाँ इ का ए, ड का ल और नकारका लोप हुए हैं।
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