Book Title: Prakritshabdanushasanam
Author(s): Trivikram
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ सु जस् टा भ्याम् भ्याम् षष्ठी उस् टिप्पणियाँ ३२९ १.१.४ सुप्सु स्वादिषु विभक्तिषु-सुप् इत्यादि विभक्तिप्रत्यय इस प्रकार होते हैंविभक्ति ए. व. द्वि. व. ब. व. प्रथमा औ.. द्वितीया अमू औट् . शस् तृतीया भ्याम् भिम् पंचमी सि भ्यस् आस् आम् सप्तमी आस् सुम् इत्-इत्को अनुबंध ऐसाभी कहते हैं। एति ( गच्छति.) इति इत ( स्वकार्य कृया विनश्यत् इत्यर्थः )। इतका अधिक स्पष्टीकरण, १.१.१४ के नीचे देखिए टास् ङिप-ये सर्व प्रत्याहार सिद्ध किए गए है। पञ्चम्या...संदेहार्थम्-पंचमी विभक्तिके प्रत्ययोंका प्रत्याहार उस् ऐसा हो जाता; परंतु डस् षष्ठी एकवचनका प्रत्यय है उसकी भ्रान्ति न हो, इसलिए सिस् ऐसा प्रत्याहार यहाँ निर्दिष्ट किया है। १.१.५-६ मात्रा, हस्व, दार्घ-मात्रा मानी अक्षिस्पन्दनप्रमाणः कालः । हस्व स्वरकी एक मात्रा और दीर्घ स्वर की दो मात्राएँ होती हैं ( एकमात्रो भवेद् ह्रस्वः द्विमात्रो दीर्घ उच्यते । ) १.१.९ अदिवर्णः-एकाध शब्दमेंसे वर्ण विभक्त करके क्रमसे आदि, द्वितीय, इत्यादि स्थान निश्चित किये जाते हैं। उदा-राम-र् + आ + म् + अ । इसमें र आदिवर्ण, आ द्वितीय वर्ण, इत्यादि । - १.१.१० गण-सदृश रूप होनेवाले शब्दोंका वर्ग बनाकर, उनमेंसे एक ( प्रधान ) शब्द प्रथम देकर, उस नामसे गण बनाया जाता है। उदा-गुणादि (गण)। १.२.१३ विभाषा-विकल्प ( न वेति विभाषा । पा. १.१.४४..):। .११.१४ इत् अनुबन्ध-विशिष्ट प्रयोजनके लिए शब्दके आगे अथवा पीछे जोड़े जानेवाले एक | अनेक वर्ण यानी अनुबंध । अनुबंध वौँकोही इत् . कहते हैं उदा-५ ( १.१.२८ ) में ा इत् है। लकार:-वर्णका निर्देश करते -समय उसके आगे ' कार ' जुड़ाया जाता है ( वर्णात्कारः )। १.१.१६ सानुनासिकोच्चार अनुनासिकके साथ उच्चार । - मुँह और नासिका द्वारा उच्चारित वर्णको नुनासिक कहते हैं । ( मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः । पा, १.१.८)। ऐसा उच्चार लेखनमें : चिन्हसे दिखाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360