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टिप्पणियाँ
१.१ १.१.१ ऋलवर्ण-ऋवर्ण और लवर्ण । ऋवर्ण-ऋ और ऋ ये स्वर । लवर्ण-ल स्वर । ऐकार-प्राकृतमें ऐकार चलता है, ऐसा २.१.७४ से ज्ञात होता है । असंयुक्तङञकाराभ्याम्-प्राकृतमें ङ् और म् अनुनासिक स्वतंत्ररूपमें नहीं आते; परंतु स्ववर्गीय व्यंजनोंसे संयुक्त रहनेवाले और ब् प्राकृतमें चलते हैं ( देखिए १.१.४१)। द्विवचनादिना-यहाँ आदिशब्दसे चतुर्थी विभक्तिका अनेकवचन अभिप्रेत दिखाई देता है। देश्याश्च शब्दाः -देश्य अथवा देशी शब्द । हेमचंद्र देशीनाममालामें (१.३) कहता है-जे लक्खणे ण सिद्धाण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु । ण य गउणलक्खणासत्तिसंभवा ते इह णिबद्धा।
१.१.२ संज्ञा-सूत्र १.१.३ देखिए । संधिप्रभृति-संधि, इत्यादि । जिनका परम निकट सांनिध्य हुआ है ऐसे वर्गों का जो संधान उसे संधि कहेत हैं। अन्यशब्दानुशासन-अन्य व्याकरण । कौमार...व्याकरणेषु-प्राचीन कालमें संस्कृत व्याकरणके अनेक संप्रदाय प्रचलित थे। उनमेंसे कौमार, जैनेन्द्र और पाणिनीय ये तीन संप्रदाय थे । कौमार व्याकरणको कातंत्र, कालाप नाम है। ऐसा कहा जाता है कि जिनने यानी जिन महावीरने इंद्रको व्याकरणका उपदेश किया, इस आख्यायिकासे जनेन्द्र नाम प्रचलित हुआ। किंतु सचमुच पूज्यपाद रचित व्याकरणका नाम जेनेन्द्र व्याकरण है। पाणिनिका व्याकरण प्रमाणभूत माना जाता है।
१.१.३ संज्ञा-प्रत्येक शास्त्रमें कुछ पारिभाषिक संज्ञाएँ होती हैं। कुछ विशिष्ट शब्द विशिष्ट अर्थमें प्रयुक्त किये जाते है, वे सब संज्ञाएँ होती हैं। उनमा उद्देश बहुत अर्थ संक्षेपमें कहना ऐसा होता है ( लघ्वर्थ हि संज्ञाकरणम् ),। कुछ संज्ञाएँ स्वतःस्पष्ट ( उदा-लोप, ह्रस्व ) होती हैं, तो कुछ भिन्न अर्थ रखनेवाली संज्ञाएँ ( उदा-गुण, वृद्धि ) होती है, तो और कुछ कृत्रिमरूपमें सिद्ध की हुई (उदा-ह, दि) संज्ञाएँ होती हैं। प्रत्याहार-प्रत्याह्रियन्ते ( संक्षिप्यन्ते ) वर्णा अस्मिन् इति । जिसमें संक्षिप्तरूपमें वर्ण कहे जाते हैं वह । उदा-अच् । स्वरः अच-अच् प्रत्याहार सब स्वर सूचित करता है। ए ओ एड्-एङ् प्रत्याहार ए और ओ स्वर बोधित करता है। ऐ औ ऐच-ऐच प्रत्याहार ऐ तथा ओ स्वर सूचित करता है। व्यञ्जनं हल्-हल् प्रत्याहार सर्व व्यंजन बोधित करता है । स्वादिःसुप्-सुप् प्रत्याहा सु, इत्यादि विभक्तिप्रत्यय सूचित करता है। त्यादिः तिङ्-तिङ् प्रत्याहार ति, इत्यादि धातुमें लगनेवाले प्रत्यय बोषित करता है।
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