Book Title: Prakritshabdanushasanam
Author(s): Trivikram
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 346
________________ टिप्पणियाँ ३३३ १.२.८१ गौणपद-समासमेंसे गौणपद । १.२.८६ इदे -इत् + एङ् । एल् प्रत्याहार है और वह ए और ओ स्वर निर्दिष्ट करता है। १.२.९० अक-एक प्रत्यय है । क्स-तद् , इत्यादि सर्वनाम पीछे होनेपर दृश् धातुको क्स प्रत्यय लगाया जाता है। अक्सयोः ......परिगृह्यते-(पाठभेदःसक्विनोः साहचर्यात् त्यदादीत्यादि सूत्रविहितः कन् ( पाठभेद-क्व , क्विन् ) इह परिगृह्यते।)। प्रस्तुत क्विय् आचार अर्थमें लगनेवाले क्विपसे भिन्न है यह दिखानेके लिए प्रस्तुत वाक्य है। पाणिनिके त्यदादि (त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च । ३.२.६०) सूत्रमें क्विप् प्रत्यय विहित नहीं है। १.२.९३ एचः संध्यक्षराणाम्-एच् प्रत्याहारमें ए, ओ, ऐ, औ स्वर आते हैं। इन स्वरोंको हेमचद्र संध्यक्षर कहता है ( एऐओऔ संध्यक्षरम् । १.१.८)। इनमेंसे प्रत्येक खर दो स्वरसे बना है; इसलिए इन्हें संयुक्त स्वरभी कहते हैं । तत्समाप्राकृतमें तत्सम ( = संस्कृतसम), तद्भव ( =संस्कृतभव) और देश्य ऐसे तीन प्रकारके शब्द होते हैं। १.२.९५ साध्यमानसिद्धावस्थयोः शब्दोंकी साध्यमान और सिद्ध भवस्था । संस्कृत व्याकरणानुसार जब कुछ शब्द पूर्ण रूपमें होता है तब वह उसकी सिद्ध अवस्था होती है। उदा.-संधि होकर बने हुए शिरोवेदना शब्दकी अवस्था । शब्दके पूर्णरूप बननेके पूर्वकी स्थिति यानी साध्यमान अवस्था । उदा-संधि होनेके पूर्व, शिरः + वेदना, यह स्थिति । १.२.१०३ विश्लष-व्यंजनोंके संयोगके बीचमें अधिक स्वर डालकर संयोग नष्ट करने का एक प्रकार । इसे स्वरभक्तिभी कहते हैं। विश्लेषके लिए १.४.९५-११० देखिए। १.३.१ साज्झला--स + अच् + हला । स्वर ( अ ) और व्यंजन (हल् ) इनके साथ । १.३.९ अवर्णात्-अवर्ण यानी अ और आ स्वर । १.३.१२ उकारेणा ... परिगृह्यते--कभी उकार अनुबंध अथवा इत् होता है। उकार अनुबंध रखनेवाले कु, चु, टु, तु तथा पु होते हैं। उकार अनुबंधसे स्ववर्गीय व्यंजनोंका स्वीकार किया जाता है। उदा-कु = कवर्गीय व्यंजन = क् ख् ग् घ् है। इसीप्रकार चु, इत्यादिके बारेमें जानना । १.३.२४ णिजन्त-णिच् + अन्त । धातुसे प्रेरक धातु सिद्ध करनेका णि प्रत्यय है । उस प्रत्ययसे अन्त होनेवाला यानी णिजन्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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