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जयाकरण
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३३२ . .. त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
१.२.८ संयोग-बीचमें स्वर न होकर जब दो अथवा आधिक व्यंजन एकत्र आते हैं तब संयोग होता है । उदा - क्य, स्फ्य, स्न्यं । संयोगमें उच्चारक्रमानुसार व्यंजनोंका पहला, दूपग, इत्यादि क्रम निश्चित होता है। १.२.८ सूत्र में य, व् , र और श, पू, म वर्गों के आगे दिये गये संयोग आभिप्रेत हैं - श्य, श्व, श्र, इश; ष्य, व, र्ष, ष, स्य, स्व, स्र, स्स।
१.२.११ वेडिसो वेतसः-वेतस शब्दमें अ क इ नित्य नहीं होता ऐसा आगे १.३.३२ के नीचे कहा है।
१.२.१६ उत्वं लित् भवति--सूत्रमेंसे उल् शब्दमें ल इत् है। जब ल् इत् होता है तब प्रायः विकल्प नहीं होता है । देखिए १.१.१४)। लित् का कार्य नित्य होता है। यहाँ उत्व नित्य होता है, ऐसा अर्थ आभप्रेत है।
१२.२१ अज्जा माता-आर्या शब्दका माता अथ होनेपर, ( ऊ होनेके बजाय ) अज्जा ऐसा वर्णान्तर होता है।
१२.२५ मात्रच प्रत्यय-मात्रच् प्रत्यम परिमाणवाचक है। उदा - प्रस्थमात्रम् । मात्रशब्द - यह मात्र शब्द सिर्फ अथवा केवल अर्थमें है ।
१.२.२६ पृथग्योगात्-१.१.३५ सूत्रकी टिप्पणीमें योगविभाग देखिए । १.. १.२.३१ मकार पर-आगे मकार हानेपर । इसका आभप्राय - पद्म शब्दमे वर्णान्तर होकर आगे मकार होनेपर ।
१.२.३३ क्तप्रत्ययान्त-कर्मणि भूतकालवाचक धातुसाधित विशेषण सिद्ध करनेका क्त प्रत्यय है । उस प्रत्ययसे अन्त होनेवाला शब्द यानी क्तप्रत्ययान्त ।
१.२.३८ घन्-धातुसे संज्ञा सिद्ध करनेका घन् ( अ ) एक कृत प्रत्यय है । उदा.-पच्-पाक । वृद्धि-अ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ-ऋ, और ल इनका अनुक्रमसे आ, ऐ, आ, आर् और आल होना यानी वृद्धि होना।
.४० स्वरूपणैव हस्वः - 'संयोगे' ( १.२.४० ) सूत्रानुसार आगे संयोग होनपर, पिछले ए और ओ हस्व होते हैं । और वे क्वचित् इ और उ एसे लिखे जाते हैं । ( उदा-णरिन्दो, अहरुट्ठो ) । क्वचित् वे मूलतःही ह्रस्व रहते हैं और वे एक्को थोकं ऐसे लिखे जाते हैं। ( कभी कभी यह चिन्हभी लिखा नहीं जाता है)।
१.२.५० . ( सूत्रमेंसे ) लाली-ल् + आ + ल् + अ = लाल; इसका द्विवचन लाली । इसमें ल इत् है।
११.२.५७ कप्रत्यय-शब्दोंको स्वार्थे लगनेवाला क-प्रत्यय । उदा-गुरु गुरुक ।
१.२.६७ लकारो नानुवन्धः-सूत्रके अल्में ल वर्ण अनुबंध अथवा इत् नहीं है; इसलिए ल् अनुबंधका कार्य यहाँ नहीं होता। अतएव दुथूल शब्दम ऊको अल् ऐसाही आदेश होता है । उदा-दुकूलम्-दुअल्लं- दुअल्लं ।
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