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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
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जच्चंदणं, अगुरु और कुंकुम अर्थों में । (८२८) डिंखा, आतंक और त्रास अर्थों में । (८२९) दलिअं, अंगुलि, दारु और कूणिनाक्ष अथोंमें । ( ८३० ) . चिप्पंडी (८३१) विप्पत्ती, व्रत और उत्सव विशेष अर्थोमं । (८३२) उंचाडइओ हुंकृत और गर्जन अर्थों में । ( ८३३) पन्चलं, असहन और समर्थ अर्थों में। (८३४) साहुली, वस्त्र, शाखा भू, सखी, सदृश, और बाहु (८३५) लंबी, लता और स्तबक अर्थों में । ( ८३६) रंजणं, घट और कुण्ड अथोंमें। (८३७) घुड़की, मुखसंमेद और मौन अर्थों में । (८३८) छुद्धि, द्वेष्या और अस्पृश्या अर्थों में ( ८३९ ) सरी, प्रशस्ताकृति और दीर्घ अर्थों में । ( ८४० ) गोरो, ग्रीवा, अक्षि और सीता अर्थों में (८४१) भसत्तो, वहूनि और दीप्त अर्थो में । (८४२) भेली, चेंटी और आज्ञा अर्थो । (८४३) कण्णोविआ, चञ्चु और अवतंस अथोंमें । (८४४) अल्लत्थी, अंगद और जलार्द्रा अर्थों में । ( ८४५) अमारो नदीमध्यद्वीप और कमठ अर्थों में । (८४६) उफेसो, भीति और सद्भाव अर्थों में ॥ इत्यादि । अब ( १ ) आडम्बरो पटहः । ( २ ) ओन्दरो मूषिकः । (३) वामलूरो वल्मीकम् । ( ४ ) किरी वराहः ( ५ ) लहरी तरंगः प्रवाह वा । ( ६ ) तलं कासारः । ( ७ ) महाबिलं गगनम् । ( ८ ) पाढा शोभा । ( ९ ) खेडं ग्रामस्थानम् | (१०) महानडो रुद्रः । ( ११ ) पुडइणी नलिनी । ( १२ ) जयणं पाडलं कमलम् । ( १४ ) कमडो भिक्षापात्रम् । (१५) कलं कल्यम् | (१६) गंन्धुत्तमा सुरा, इत्यादि शब्द तत्सम / तद्भव होनेके कारण प्रयोग प्राप्त हो ( सकते हैं ।
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भयसंनहनम् । (१३)
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( सूत्र में से ) सिद्धा: पद मंगलार्थक है ॥ ७२ ॥ तृतीय अध्याय चतुर्थ पाद समाप्त
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