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द्वितीयः पादः दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तोः ॥ १ ।।
शौरसेनी भाषामें अखु (अनादि होनेवाला), स्वरके आगे होनेवाला, अस्तु (असंयुक्त) ऐसे तकारका दकार होता है। उदा.-तदो पूरिदपदिण्णेण मारुदिणा मन्तिदो। एतस्मात् एदाहि। सततम् सददं। अखु, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण तकार आदि होनेपर, ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.तया तहा । तधा करेध । तरइ । स्वरके आगे होनेवाला, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण स्वरके आगे तकार न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.चिन्ता । मन्तिदं । अस्तु, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण तकार संयुक्त हो तो ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.-मन्तो। अय्यउत्तो। असंभाविदसक्कार। हला सउन्तले ॥ १ ॥ अधः क्वचित् ॥ २ ॥
(इस सूत्रमें ३.२.१ से) तस्य पदकी अनुवृत्ति है। शौरसेनीमें संयोगमें (संयुक्ताक्षरमें) अनंतर (=बादमें) (अधो) होनेवाले त का दकार कचित् लक्ष्यानुसार होता है। उदा.-महन्दो । अन्देउरं ॥ २॥ तावति खोर्वा ॥३॥
___ शौरसेनीमें तावत् शब्दमें खु यानी आध होनेवाले तकारका द विकल्पसे होता है। उदा.-दाव। ताव ॥ ३ ॥ थो धः ॥ ४ ॥
(इस सूत्रमें ३.२.३ मेंसे) वा पदकी अनुवृत्ति है। शौरसेनीमें थका ध विकल्पसे होता है। उदा.-कधेदि कहेदि, कथयति। कधं कहं, कथम् । पिधं पिह, पृथक् । कथा कहा, कथा। (थ) अखु (अनादि) होनेपरही (ऐसा वान्तर होता है, अन्यथा नहीं होता)। उदा.- थाम |
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