Book Title: Prakritshabdanushasanam
Author(s): Trivikram
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 297
________________ त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण सप्तम्याश्च ॥५३॥ ___ अपरंशमें सप्तमीके यानी लिङ् (विध्यर्थ)के मध्यमपुरुष एकवचनों में थास् और सिप को हि ऐसा आदेश होता है ॥ ५३॥ आअहिं जम्माहिं अन्ना, वि गोरि सु दिज्जहि कंतु।। गअ मत्तहँ चत्तंकुसहं जो अभिडइ हसंतु ।।१४६॥ (=हे. ३८३.३) (अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि तं दद्याः कान्तम् । गजानां मत्तानां त्यक्ताङ्कुशाना यः संमुख गच्छति हसन् ॥) हे गौरी, इस जन्ममें तथा दूसरे जन्ममें (मुझे) वही प्रियकर देना जो हँसते हँसते मत्त और अंकुशकी परवाह न करनेवाले गजोंके आगे आकर भिडता है । विकलपक्षमें-हससि, इत्यादि ।। ५३ ॥ हु थध्वमोः ।। ५४॥ _लट्के यानी वर्तमानकालके मध्यम पुरुषके बहुत्वमें रहनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद इनके थ और ध्वम् (प्रत्ययों) को हु ऐसा आदेश होता है। उदा.-होहु हवहु हुवहु, भवथ ॥ ५४ ॥ बलि अब्भत्थणि महुमहणु लहुईहूआ सोइ । .. जइ इच्छह बड्डुत्तणउँ देहु म मग्गहु कोइ ।। १४७॥ (=हे. ३८४.१) (बल्यम्पर्थने मधुमथनो लघुकीभूतः सोऽपि । यदीच्छथ बृहत्वं दत्थ मा याचध्वं कमपि ।।) बलिस याचना करते समय वह विष्णु (मधुमथन) भी छोटा हो गया। (इसलिए) यदि महत्ता चाहते हो तो (दान) दो किसीसे (कुछ भी) मत माँगों। विकल्पपक्षमें-इच्छह, इत्यादि ।। उ मिबिटोः ॥ ५५ ॥ ___ लद्के यानी वर्तमानकालके उत्तम पुरुषके एकवचनमें रहनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद इनके मिप् और इट् (प्रत्ययों)को उँ ऐसा आदेश "विकलासे होता है । उदा.-संपइ कड्ढउँ वेस जिम [८७] । बलि किज्जउँ सुअणस्सु [१०७] । विकल्पपक्षमें-कड्ढमि, इत्यादि ॥ १५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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