Book Title: Prakritshabdanushasanam
Author(s): Trivikram
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 301
________________ ૮૮ त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण विद्यमान भोगोंको त्याग जो करता है उस प्रियकरकी मैं पूजा करती हूँ। जो खल्वाट (गंजा) है उसका तो दैवनेही मुंडन कर दिया है । विकल्पपक्षमें-बलि किजइ सुअणस्सु [१०५] । ( यहाँ) साध्यमान अवस्थामें (होनेवाले ) क्रिये ऐसे संस्कृत शब्दसेही यह प्रयोग है। पस्सगण्ही दृशिग्रहोः ।। ६३॥ ___अपभ्रंशमें दृश् ( दृशि ) और ग्रह इन धातुओंको पस्स और गण्ह ऐसे आदेश यथाक्रम होते हैं। उदा.- पस्सदि, पश्यति । पढ गण्हेप्पिणु व्रतु, पठ गृहीत्वा व्रतम् ॥ ६३ ।। तक्षाद्याश्छोल्लादीन् ।। ६४ ॥ . अपभ्रंशमें तक्ष् ( तक्षि ), इत्यादि धातुओंको छोल्ल, इत्यादि आदेश प्राप्त होते हैं ।। ६४ ॥ उदा. जिम जिम तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लिजन्तु । . तो जइ गोरिह मुहकमलि सरिसिम का वि लहन्तु ।। १५६ ।। (= हे. ३९५. १) ( यथा तथा तीक्ष्णान् लात्वा करान् यदि शशी अतक्षिष्यत । ततो जगति गौर्या मुखकमलेन सदृशतां कामप्यलप्स्यत॥) किसी भी प्रकारसे यदि तीक्ष्ण किरणोंको ले (निकाल) कर चंद्र को छीला जाता तब इस जगतमें गौरीके मुखकमलसे कुछ सादृश्य उसको मिल जाता । (सूत्र में) आदिशब्द का ग्रहण होनेसे, देशी (भाषा) में जो क्रियावाचक शब्द उपलब्ध होते हैं वे उदाहरणके रूपमें लिए जाय । उदा. चडुल्ल उ चुण्णीहोइसइ मुद्धि कवोलि निहित्तउ । सासाणलजालझलक्किअउ बाहसलिलसंसित्तउ ।। १५७ ।। (= हे. ३९५.२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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