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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
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अवि (आदेशका उदाहरण)बाह विछोडवि जाहि तुहुँ हउँ तेवइ को दोसु। . हिअअट्ठिउ जइ नीसरहि जाणउँ मुंज सरोसु ॥२८॥ (=हे. ४३९.३) (बाहू विच्छोड्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः। हृदयस्थितो यदि निःसरसि जानामि मुञ्ज सरोषः ॥)
हायोंको छोडकर तू जा। ऐसा होने दो | उसमें क्या दोष है ? (किंतु) यदि तू मेरे हृदयसे निकल जाएगा तो समझूगी कि मुज गेषयुक्त है । एप्प्येप्पिण्वेव्येविणु ॥ १९॥
अपभ्रंशमें क्त्वा प्रत्ययको एप्पि, एप्पिणु, एत्रि, एविणु ऐसे चार आदेश होते हैं। उदा.-करेप्पि, करेपिणु, करेवि करेविणु, कृत्वा ॥ १९॥
जेप्पि असेसु कसाअबलु देप्पिणु अभउँ जअस्सु । लेवि महवअ सिवु लहहिं झाएविण तत्तस्सु ॥२९॥ (-हे. ४४०.१), (जित्वाशेष कषायबलं दत्वाभयं जगतः । । लात्वा महाव्रतानि शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् ॥)
कषायरूप संपूर्ण सेनाको जीतकर, जगत्को अभय देकर, महाव्रत लेकर, तत्त्वका ध्यान करके (ऋषि, मुनि) आनंद (शिव) प्राप्त करते हैं।
(इस सत्रका ३.३.१८ से) पृथक् कहना अगले सूत्रको लिए है । तुम एवमणाणहमणहिं च ।। २० ।।
अपरेशमें तुमुन् प्रत्ययको एवं, अण, अणहं, अणहिं ऐसे ये चार, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण एप्पि, एप्पणु, एवि, एविणु ऐसे ये चार, एवं (कुल) आठ आदेश (प्राप्त) होते हैं । उदा. करवं करण करणहं करणहिं करेप्पि करेप्पिणु करेवि करेविणु, कर्तुम् ॥ २० ॥
देवं दुक्करु निअअधणु करण न तउ पडिहाइ । एमइ सुहुँ भुंजणहँ मणु पर भुंजणहिँ न जाइ ॥३०॥ (हे. ४४१.१) (दातुं दुष्करं निजकपनं कर्तुं न तपः प्रतिभाति । एवमेव सुखं भोक्तुं मनः परं भोक्तुं न याति |1) .
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