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त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण
सर्वगात् डि हिं॥ २६॥
अपभ्रंशमें सर्वग यानी सर्व, इत्यादि अकारान्त (शब्दों)के भागे डिभवन हिं ऐसा हो जाता है ॥ २६ ॥ ना खंडिज्जइ सरिण सरू विज्झइ खग्गिण खरगु । बहिँ तहविहि भडघडनिवहि कंतु पयासइ मग्गु ॥ १२५ ॥ (-हे. ३५७.१)
(यस्मिन् खण्ज्यते शरेण शरो विध्यते खड्गेन खड्गः। तस्मिंस्तथाविधे भटपटानिवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् ॥)
जहाँ बाणसे बाण काटा जाता है, जहाँ खड्गसे खड्गका वेष किया जाता है, वहाँ उसप्रकारके भटोंके समुदायमें (मेरा) प्रियकर (योडोंके लिए)
ओको प्रकाशित करता है । बसिह ॥ २७॥
अकारान्त सर्व, इत्यादिके आगे उसि यानी पंचमी एकवचन हं ऐसा . हो जाता है । उदा.-जहं होतउ भागओ, तहं होतउ आगओ, यस्माद् मवानामतः, तस्माद् भवानागतः ॥ २७ ॥ तु किमो डिह ॥२८॥
अपभ्रंशमें अकारान्त किम् शब्दके आगे ङसि- (पंचमी एक-) वचन डित् इह ऐसा विकल्पसे हो जाता है। उदा. किह भागओ। विकल्पपक्षमें-कहं बागओ, कस्मादागतः ॥२८॥
जइ तुह तुट्टउ नेहडा मइँ सहुँ नवि तिलतार । तं किह हिँ लोअहिँ जोइजउँ समवार ॥१२६॥ (=हे. ३५६.१) (यदि तव त्रुटितः स्नेहो मया सह नापि तिलमात्रः। तत्कस्माद् वक्राभ्यां लोचनाम्यां विलोक्ये शतवारम् ।।)
यदि तेरा मेरे साथ स्नेह टूट गया हो, तिलमात्रभी नहीं है, तो सैंकडों बार वक्र दृष्टिद्वारा में क्यों देखी । देखा जाता | जाती हूँ।
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