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२.
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
(स्वया मुक्तानामपि वरतरो भ्रश्यति पत्रत्वं न पत्राणाम् । तव पुनश्छाया यदि भवेत् कथमपि तत्तैः पत्रैः ।।)
हे सुंदर तरु, तुझसे छुटकर भी पत्तोंका पत्तापन (पत्रत्व) नष्ट नहीं होता । किंतु तेरी किसी प्रकारकीमो छाया जो होती है वह उन्हीं पत्तोंसेही (होती है)।
महु हिअउँ तई ताए तुह स वि अन्ने विन डिज्जइ । पिअ का करउँ हउँ काई तुहुँ मच्छे मच्छु गिलिज्जइ ।१४।।
(=हे. ३७०.२) (मम हृदयं त्वया तया तव साप्यन्येन विनाट्यते । प्रिय किं करोम्यहं किं त्वं मत्स्येन मत्स्यो गिल्यते ।।
मेरा हृदय तूने (जीता है), उसने तेरा (हृदय जीता है)। वह (स्त्री) भी दूसरे (पुरुष) के द्वारा पीडित होती है । हे प्रियकर, मैं क्या करूँ ? तू क्या करेगा ? मछलीसे मछली निगली जाती है।
तुज्झ तुध्र तउ ङसिङसा ॥ ४१ ।।
अपभ्रंशमें युष्मद्को सि और ङस् इनके साथ तुज्झ, तुध्र, तउ ऐसे तीन आदेश होते हैं ॥ ४१ ।। उदा. तुज्झ होतउ आगदो। तुभ्र होतउ आअदो । तउ होतओ आगदो । उस्के साथ
तउ गुणसंपइ तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खंति । जइ उप्पत्तिं अन्न जण महिमंडलि सिक्खन्ति ॥: ४१।। (=हे.३७२-१) (तव गुणसंपदं तव मति तवानुत्तर शान्तिम् ।। यापेत्यान्ये जना महीमण्डले शिक्षन्ते ।।)
महीमंडलपर पास आकर दूसरे लोग तेरी गुणसंपत्ति, तेरी बुद्धि, तेरी सर्वोत्तम क्षमा सीख लेते हैं।
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