________________
हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२५३
अन्यादृशस्याण्णाइसावराइसौ ॥ ५५ ॥
अपभ्रंशमें अन्यादृशको अण्णाइस, अवराइस ऐसे आदेश हो जाते हैं। उदा.-अण्णाइसु । अवराइसु ।। ५५ ॥ वहिल्लगाः शीघ्रादीनाम् ।। ५५ ।।
अपभ्रंशमें शीघ्र, इत्यादि (छन्दों)को वहिल्ल, इत्यादि आदेश प्रायः हो जाते हैं ।। ५६ ॥ शीघ्रको वहिल्ल (आदेश)
एक्कु कइह. वि न आवहि अन्नु वहिल्लउ जाहि । म. मित्तडा प्रमाणिअउँ पइँ जेहउ खलु नाहि ।।७४॥ ( हे.४२२.१).
(एक कदाचिदपि नायासि अन्यत् शीघ्रं यासि । मया मित्र प्रमाणितं त्वं यथा खलो नहि ।।)
एक तू कभीभी नहीं आता, दूसरे (आया तोभी) शीघ्रही जाता है। हे मित्र, मैंने जाना है कि तेरे जैसा दुष्ट (अन्य कोई भी) नहीं है ।
इस गणमें (स्वार्थे) क (प्रत्यय) का किं होता है। उदा.झकटकको घग्घल (आदेश)जिम सुउरिस तिम घग्घलइँ जिम नइ तिम वलणाई । जिम डोंगर तिम कोहरइँ हिआ विसूरहि काई ।।७५।। (=हे.४२२.२).
(यत्र सुपुरुषास्तत्र झकटकाः यत्र नदी तत्र वरनानि । यत्र पर्वतास्तत्र कोटराणि हृदय खिद्यसे किम् ॥)
जहाँ सत्पुरुष हैं वहाँ झगडालूभी हैं। जहाँ नदी वहाँ (नदीका) घुमाव है। जहाँ पर्वत वहाँ कंदरारंभी हैं। (तो फिर हे हृदय, तुम क्यों खेद करते हो? रम्य को रवण्ण (आदेश)सरिहिं न सरेहिँ सरवरहिँ नवि उजाणवणेहिं । देस रवण्णा होंति वढ निवसंतेहिँ सुअणेहिं ॥७६।। (=हे.४२२.१०)
(सरिद्भिर्न सरोभिन सरोवरैः नापि उद्यानवनैः । देशा रम्या भवन्ति मूढ निवसद्रिः सज्जनैः ।)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org