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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
२६९.
कंत।
(धवलो विषीदति स्वामिनो गुरुं भारं प्रेक्ष्य । अहं किं न युक्तो द्वयोर्दिशोः खण्डे द्वे कृत्वा ।।)
स्वामीका बडा (गुरु) भार देखकर धवल (बैल) खेद करता है (और अपनेसे कहता है-) मेरे दो खंड करके क्यों न मुझे जुएँके दोनों ओर जोत दिया गया ? उसो लुक् ।। १६ ॥
अपभ्रंशमें ङस् का यानी षष्ठी विभक्तिका प्रायः लोप होता है। उदा.-राम, रामा, रामस्य रामाणां वा ॥ १६ ॥
संगरसहि वि जो वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कंतु। अइमत्तहं चत्तंकुसहं गअ कुंभइँ दारन्तु ।।११६॥ हे.३४५.१) (संगरशतेष्वपि यो वर्ण्यते पश्यास्माकं कान्तम् । अतिमत्तानां त्यक्ताकुशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् ।।)
सैंकडों युद्धोंमें, अत्यंत मत्त तथा अंकुशकी भी परवाह न करनेवाले गजोंके कुंभस्थलोंका विदारण करनेवाला ऐसा जिसका वर्णन किया जाता है उस मेरे प्रियकरको देख। सुससोः ॥ १७ ॥
__सुस् यानी प्रथमा (विभक्ति), अस् (यानी) द्वितीया (विभक्ति), इनका अपभ्रशमें नित्य लोप होता है। उदा. राम रामा, रामः रामाः, राम रामान् इति वा । एइ ति घोडा [१००], यहाँ, सु, अम् और जस् इनका लोप हुआ है। जिम 'जम बंकिम लोअणहं [१३], यहाँ सु, अम् और शस्. इनका लोप हुआ है ॥ १७ ॥ हो जसामन्त्र्ये ॥ १८ ॥
___ अपभ्रंशमें आमंत्रण (संबोधन)के अर्थमें रहनेवाली संज्ञाके भागे (आनेवाला) जस् (प्रत्यय) हो ऐसा हो जाता है। (सुस् का) लोप होता है
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