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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
प्रियकर आया; आये हुए उसकी ध्वनि कर्णमें प्रविष्ट हो गयी । नष्ट होनेवाले उस विरहकी धूलभी न देखी गई ।।
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इदतोऽति ।। ३३ ।।
उसका अत्
उदा. - धूल डिआ
अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाका जो अकार, अर्थात् अकार प्रत्यय आगे होनेपर, इकार होता है । विन दिट्ठ [ ५२ ] | स्त्रीलिंग में ( रहनेवाली संज्ञाके बारेमेही ऐसा होता है, अन्यथा नहीं | उदा.-) झुणि कण्णड पट्ट [ ५२ ] ॥ ३३ ॥
इदानीमेव्वहि || ३४ ॥
अपभ्रंशमें इदानीम् के स्थानपर एव्वहि ऐसा होता है । उदा. एव्वहि होइ, इदानीं भवति ॥ ३४ ॥
हरि नचाविउ पंगणइ विम्हइ पाडिउ लोउ ।
एवहि राहपओहरहँ जं भावइ तं होउ || ५३ | | ( = हे. ४२०.२) (हरिर्नर्तित: प्राङ्गणे विस्मये पातितो लोकः ।
इदानीं राधापयोधरयोर्यद् भवति तद् भवतु || )
हरिको आँगन में नचाया गया; लोगोंको आश्चर्यमें डाला गया । अभी राधाके स्तनोंका जो होता है वह होने दो ।
एव जि ।। ३५ ।।
अपभ्रंश में एव शब्द के स्थानपर जि ऐसा होता है जि, राम एव ॥ ३५ ॥
जाउ म जंतउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ |
हिअइ तिरिच्छी हउँ जि पर पिउ डंबरहूँ करेइ || ५४ || ( = हे. ४२०.१)
( यातु मायान्तं पल्लव पश्यामि कति पदानि ददाति ।
हृदये तिरश्वीना अहमेव परं प्रियो डम्बराणि करोति ॥ )
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उदा. -रामु
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