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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण (मम कान्तस्य द्वौ दोषौ हे सखि मा जल्प मिथ्या । ददतोऽहं परमुर्वरिता युध्यमानस्य करवालः ॥)
हे सखी, मेरे प्रियकरके दो दोष हैं। झूठ मत बोल। जब वह दान देता है तो (केवल) मैं अवशिष्ट रहती हूँ, और जब वह युद्ध करता है तब केवल तरवार (अवशिष्ट रहती है)।
एक्क कुडुल्ली पंचहिँ रुद्धी [७६] ।। तद्योगजाथ ।।३०॥
अपभ्रंशमें अ, अड और उल्ल इनके परस्परसंयोगसे जो अड, डुल्छा डुल्लड, इत्यादि बनते हैं, वे भी प्रायः स्वार्थे (प्रत्यय) होते हैं ॥३०॥
उदा.-अड (प्रत्ययका उदाहरण)फोडेंति जे हिअडउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवण घिण। रक्खेजहों तरुणहो अप्पणा बालहें जाया विसम थण ॥ १९॥
(=हे. ३५०.२) (पाटयतो यौ हृदयकमात्मनः तयोः परकीया का घणा। रक्ष्यन्तां तरुणा आत्मा बालाया जातौ विषमा स्तना ।।)
जो अपनाही हृदय फोडते हैं (ऐसे स्तनोंको) दूसरेके बारेमें क्या दया (होगी)? हे तरुण लोगो, उस बालासे अपनी रक्षा करो। (उसके) स्तन (अभी) संपूण (विषम, हृदय फोडनेवाले) हो गए हैं।
डुल्लअ (प्रत्ययका उदाहरण)चडुल्लउ चुण्णीहोइसइ [१५५] । डुल्लड (प्रत्ययका उदाहरण)सामिपसाअ सलज्जु पिउ सीमासंधिहि वासु । देक्खिअ बाहुबलुल्लडउ धण मुंचइ नीसासु ।।५०॥=हे.४३०.१) (स्वामिप्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासन्धौ वासम् । प्रेक्ष्य बाहुबलं धन्या मुञ्चति निःश्वासम् ।।)
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