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तृतीयः पादः प्रायोऽपभ्रंशेऽचोऽच ॥१॥
___ अपरंशमें अच् के अर्थात् स्वरके स्थानमें प्रायः दूसरा अच् अर्थात् स्वर आता है। उदा.-कउ काउ। वेणा वेणी । बाह बाहा, बाहुः । पढे पुढे, पृष्ठम् । तणु तिणु तुणं, तृणम् । सुकिदु सुकृदु सिकिउ, सुकृतम् । लिह लिहा लेह, लेखा। गउरं गोरं । (सूत्रमें) प्रायः ऐसा कहा जानेसे, अपभ्रंशमें जो विशेष (ऐसे) कहे जायेंगे, उनके बारेमेंभी प्राकृतवत् और शौरसेनीवत् कार्य होता है ॥ १ ॥ अचोऽस्तवा खो कखतथपफा गघदधबभान् ॥ २ ॥
(इस सूत्रमें ३.३.१ से) अपभ्रंशे पद की अनुवृत्ति है । अपभ्रंशमें स्वरके आगे रहनेवाले, अस्तु यानी असंयुक्त, अखु यानी अनादि होनेवाले, जो क,ख, त, थ, प, फ वर्ण (होंगे), उनको प्रायः यथाक्रम ग, घ, द, ध, ब, भ ऐसे ये (वर्णविकार) प्राप्त होते हैं। ॥ २॥ उदा.-क का ग
जं दिट्ठउँ सोमग्गहा असइहिं हसिउँ णिसंकु । पियमाणुसविच्छोहगरु गिलि गिलि राहु मियंकु ॥१॥ (-हे.३९६.१) (यद् दृष्टं सोमग्रहणमसतीभिर्हसितं निःशङ्कस् । प्रियमनुष्यविक्षोभकर गिल गिल राहो मृगाङ्कम् ॥)
असतियों (कुलटाओं)ने जो चंद्रग्रहण देखा तो निःशंक भावसे हँसा (और कहा)-प्रिय जनको विक्षुब्ध करनेवाले चंद्रको, हे राहु, निगलो रे निगलो।
ख का घअम्मिएँ सत्थावत्थेहिं सुधिं चिंतिज्जइ माणु । पिएँ दिढे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २॥ (=हे. ३९६.२) (अम्ब स्वस्थावस्थैः सुखेन चिन्त्यते मानः। प्रिये दृष्टे सुखपारवश्येन कश्चेतयत्यात्मानम् ॥)
हे माँ, आराममें रहनेवालेसे सुखसे मानका विचार किया जाता है। (किंतु) जब प्रियकर दृष्टिगोचर होता है तब सुखपरवशतासे कौन अपना विचार करता है? त्रि.वि-...१५
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